अपनी खुशी का जश्न क्या इस हद तक बेलगाम हो सकता है कि इसमें डूब कर किसी दूसरे के घर को दुख और मातम से भर दिया जाए? किसी व्यक्ति या परिवार का अपनी खुशी को उत्सव की तरह प्रदर्शित करना गलत नहीं है, लेकिन इस क्रम में उसे दूसरों की शांति और जिंदगी को बाधित करने का हक नहीं है। उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के सिरसपुर इलाके में एक महिला ने पड़ोस में तेज आवाज में बज रहे संगीत को सिर्फ रोकने की बात कही, मगर इसके जवाब में उस पर पिस्तौल से गोली चला कर जानलेवा हमला किया गया।
वह मौत से जूझ रही है और इसी वजह से उसके गर्भ में पल रहे बच्चे की मौत हो गई। इस तरह की यह अकेली घटना नहीं है। आए दिन ऐसी खबरें आती रहती हैं, जिनके मुताबिक किसी मौके पर बेलगाम और तेज आवाज में संगीत बजाने को लेकर अगर किसी ने विरोध जताया तो उसकी आपत्ति पर गौर करने के बजाय उल्टे उस पर हमला कर दिया जाता है। कुछ ही दिन पहले झारखंड में एक धार्मिक शोभायात्रा के दौरान तेज आवाज में संगीत बजाने से पुलिस ने रोका तो जुलूस में शामिल लोगों ने पुलिसकर्मियों पर ही हमला कर दिया।
यह समझना मुश्किल है कि कभी पर्व-त्योहार या फिर किसी पारिवारिक समारोह के मौके पर आयोजित समारोह में कुछ लोग बेहिसाब तेज शोर और संगीत को ही खुशी को अभिव्यक्त करने का मुख्य जरिया क्यों मान लेते हैं! अगर कोई ऐसा मानता भी है तो उसे यह सोचना जरूरी क्यों नहीं लगता कि उसकी वजह से आसपास का वातावरण कई स्तर पर बाधित हो सकता है, इससे बाकी लोगों को सह सकने से ज्यादा परेशानी हो सकती है।
इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट सन 2005 में ही ध्वनि प्रदूषण पर रोक के मामले में अपने एक फैसले में कह चुका है कि जबरदस्ती ऊंची आवाज यानी तेज शोर सुनने को मजबूर करना किसी के मौलिक अधिकार का हनन है। तब अदालत ने यह साफ किया था कि किसी को भी इतना शोर करने का अधिकार नहीं है, जो उसके घर से बाहर जाकर पड़ोसियों और अन्य लोगों के लिए परेशानी पैदा करे। इसके अलावा, स्थानीय प्रशासन की ओर से स्पष्ट निर्देश जारी किए जाते हैं कि किसी भी स्थिति में ऊंची आवाज में संगीत बजाने को लेकर तय समय और सीमा का उल्लंघन गैरकानूनी है।
विडंबना यह है कि इस मसले पर कानूनी स्थिति बिल्कुल स्पष्ट होने के बावजूद न लोग इसका खयाल रखते हैं और न ही संबंधित महकमे या पुलिस को सरेआम इसके उल्लंघन के खिलाफ अपनी ओर से सख्त कार्रवाई करना जरूरी लगता है। जो लोग इस तरह के जश्न में डूबे रहते हैं, उन्हें बाकी लोगों की असुविधा से कोई मतलब नहीं होता और जिन लोगों को परेशानी होती है, वे आमतौर पर झगड़े-झंझट, हिंसक प्रतिक्रिया या फिर कानूनी जटिलताओं से बचने के खयाल से आपत्ति नहीं जता पाते हैं।
किसी को अपनी खुशी पर जश्न मनाना अच्छा लग सकता है। लेकिन सच यह है कि ऐसे मौकों पर जिस स्तर पर शोर किया जाता है, जो तौर-तरीके अपनाए जाते हैं, उसकी वजह से आसपड़ोस का माहौल ध्वनि प्रदूषण और अशांति से भर जाता है। किसी की जरूरी पढ़ाई बाधित हो जाती है, कोई अगले दिन काम पर जाने के लिए जरूरत भर नींद नहीं ले पाता है तो किसी की सेहत पर बुरा असर पड़ता है।
इससे उपजने वाली शारीरिक-मानसिक परेशानियों का अंदाजा लगाया जा सकता है। एक सभ्य नागरिक और समाज की यह पहचान है कि कोई अपनी खुशी को अभिव्यक्त करे, लेकिन अगर उससे दूसरों को किसी तरह की परेशानी हो रही हो तो वह खुद अपनी सीमा तय करे।