वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर छिड़ा विवाद अब सुलझने की दिशा में बढ़ता नजर आ रहा है। वाराणसी की जिला अदालत ने ज्ञानवापी के व्यास तहखाने में पूजा-पाठ की इजाजत दे दी है। अदालत ने यह फैसला भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग यानी एएसआइ द्वारा पेश सबूतों के आधार पर सुनाया है।

हालांकि मुसलिम पक्ष का कहना है कि एएसआइ की रिपोर्ट में ऐसी कोई बात नहीं कही गई है कि ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण मंदिर के अवशेष पर हुई थी। मगर वाराणसी जिला अदालत ने प्रशासन से कहा है कि वह एक हफ्ते के भीतर वहां पूजा-पाठ की व्यवस्था कराए। दरअसल, व्यास पीठ पिछले तीस वर्षों से बंद था।

हिंदू पक्ष का दावा है कि उससे पहले तहखाने में शृंगार गौरी की पूजा होती थी, मगर 1991 में जब पूजास्थल अधिनियम बना, तो राज्य सरकार ने उसे बंद करा दिया। दरअसल, हिंदू पक्ष ने दावा किया था कि ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण मंदिर तोड़ कर हुआ है, इसलिए उस पर उसे स्वामित्व दिलाया जाए। यह मामला लंबा खिंचता गया।

करीब पांच वर्ष पहले फिर से दावा पेश किया गया, जिस पर त्वरित सुनवाई की व्यवस्था की गई। करीब दो वर्ष पहले अदालत ने ज्ञानवापी परिसर में एएसआइ से सर्वेक्षण कराने का आदेश दिया था। उस पर रोक लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक में गुहार लगाई गई, मगर अदालत ने सर्वेक्षण पर रोक से इनकार करते हुए कहा कि इस मामले का छह महीने के भीतर निपटारा हो जाना चाहिए, क्योंकि इससे दो समुदायों में तनाव बढ़ने का अंदेशा है।

भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अध्ययनों में ऐसे कई प्रमाण मिले हैं, जिससे साबित होता है कि ज्ञानवापी की जगह पहले हिंदू मंदिर रहा होगा। बताया गया है कि उसमें शिवलिंग के अलावा कई हिंदू प्रतीक और शिलालेख मिले हैं। हालांकि मुसलिम पक्षकारों ने पूजास्थल अधिनियम का हवाला देते हुए पूरे विवाद को ही निरस्त करने की अपील की थी, क्योंकि उसमें कहा गया है कि 1947 के पहले से जो पूजा स्थल जैसे हैं, वे उसी स्थिति में रहेंगे।

अयोध्या मामले को इससे अलग रखा गया था। मगर दिसंबर में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि उस अधिनियम के तहत अगर किसी जगह पर मंदिर है, तो वह मंदिर ही रहेगा और अगर मस्जिद है तो मस्जिद रहेगी। यानी एक परिसर में दोनों तरह की व्यवस्था नहीं हो सकती। चूंकि व्यास तहखाने में शृंगार गौरी की पूजा पुराने समय से होती आई थी, इसलिए ज्ञानवापी के पक्षकारों का दावा कमजोर पड़ गया।

यह छिपा तथ्य नहीं है कि हमारे देश में आक्रांता शासकों ने अनेक पूजा स्थलों को ध्वस्त कर उनकी जगह अपने पूजा स्थल खड़े कर दिए। उनमें से अनेक के ऐतिहासिक साक्ष्य भी उपलब्ध हैं। उन पर स्वामित्व के दावे-प्रतिदावे किए जाते रहे, मगर धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक संकल्प की वजह से सरकारें उन मामलों में दखल देने से बचती रहीं। ज्ञानवापी मामले में भी यही रवैया देखा गया।

जबकि पूजास्थल किसी भी समुदाय की आस्था से जुड़े होते हैं, उनकी वजह से किसी भी प्रकार का विवाद या दो समुदायों के बीच तनाव की स्थिति ही क्यों बनी रहनी चाहिए। वैसे भी अगर किसी विवाद की वजह से सामाजिक तनाव पैदा होता है, दो समुदायों के बीच वेबजह दुश्मनी बनी रहती है, तो उसका शीघ्र निपटारा हो जाना चाहिए। वाराणसी जिला न्यायालय का फैसला इस दृष्टि से उचित कहा जा सकता है। अयोध्या मामले में आया फैसला अब इस तरह के विवादों के लिए एक नजीर है।