आमतौर पर अपराध को लेकर हमारे समाज में सोचने का सिरा सिर्फ यही होता है कि अपराधियों को उनके किए की सजा मिलनी चाहिए। लेकिन क्या यह भी एक जरूरी पहलू नहीं है कि किसी अपराध में सजा काट रहे व्यक्ति को सुधरने का मौका दिया जाए? उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर की जिला जेल में उम्रकैद की सजा काट रहे एक कैदी सहित नौ विचाराधीन कैदियों ने बोर्ड की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में पास कर एक बेहतर भविष्य की उम्मीद जगाई है। जिन कैदियों ने दसवीं और बारहवीं की परीक्षाएं पास कीं, उनमें से सबको साठ से लेकर पचहत्तर फीसद तक अंक मिले हैं। जाहिर है, इनके भीतर पढ़ने के प्रति गहरी ललक थी, न कि इन्होंने सिर्फ किसी औपचारिकतावश या फिर वक्त काटने के लिए पढ़ाई की। सही है कि कानूनी तकाजों के हिसाब से कसूरवार को निर्धारित सजा मिलनी चाहिए। लेकिन इस बीच व्यवस्था की ओर से अगर कैदी के मन-मिजाज में बदलाव की कोशिश की जाती है तो यह समूचे समाज के लिए एक सकारात्मक पहल है। दूसरी ओर, इन कैदियों ने भी यह दिखाया है कि एक तय अवधि के लिए जेल जाना जीवन में कुछ बेहतर करने या अच्छा इंसान बनने के सारे मौके खत्म हो जाना नहीं होता।
अपराध की दुनिया में दाखिल हो जाने या किसी क्षणिक आवेश में कोई आपराधिक कृत्य कर बैठने के पीछे दरअसल माहौल से मिली एक प्रवृत्ति भी होती है। यह कई बार सुधारे जाने लायक होती है, लेकिन अपेक्षित सामाजिक सहयोग न मिल पाने के चलते अपने भटके हुए रास्ते पर आगे बढ़ती चली जाती है। इस लिहाज से देखें तो कैदियों के लिए पढ़ाई-लिखाई का इंतजाम कराना और उन्हें बेहतर नतीजे हासिल करने लायक बनाना भी जेल प्रशासन की उपलब्धि है। वरना आमतौर पर जेलें कैदियों के भीतर ऐसा बदलाव नहीं कर पातीं कि बाहर जाने के बाद वे सहज जीवन गुजारें। बल्कि इसके उलट उदाहरण जरूर देखे जाते हैं कि किसी साधारण अपराध में जेल गया व्यक्ति बाहर आने के बाद ज्यादा गंभीर अपराधों में शामिल हो जाता है। जाहिर है, यह जेलों और सजा के मूल मकसद की नाकामी है, जहां उसके साथ हुए बर्ताव या संगति ने कोई सकारात्मक बदलाव लाने की जगह उसे और ज्यादा विकृत कर दिया। कई देशों के ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां जेलों को ‘वर्क-हाउस’ या सुधार-गृह के रूप में जाना जाता है।
आधुनिक जेलों में कैदियों के विकास के लिए जरूरी सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं। सुधार कार्यक्रमों के साथ-साथ बेहतर चिकित्सा व्यवस्था, मनोरंजक गतिविधियां, खेलकूद व पढ़ाई और सबसे अहम काउंसिलिंग जैसी कवायदें खासतौर पर वैसे कैदियों के लिए अनुकूल साबित होती हैं जो आदतन अपराधी नहीं होते। पढ़ाई-लिखाई या दूसरी सकारात्मक गतिविधियों में कामयाबी और सम्मान हासिल करने वाले किसी कैदी को देख कर जेल के दूसरे कैदियों के भीतर भी सुधार की ललक पैदा होती है। शायद इसी के मद्देनजर भारत में भी पिछले कुछ सालों से जेलों में सजा काट रहे लोगों के लिए पढ़ाई और रोजगार के लिए प्रशिक्षण के बाद नौकरी की सीमित सुविधाएं मुहैया कराने की कोशिशें शुरू हुई हैं। यह एक सकारात्मक पहल है।