अब संयुक्त राष्ट्र के एक स्वतंत्र विशेषज्ञ ने चेतावनी दी है कि अभी दुनिया भर में गरीबी और बढ़ेगी। यह चेतावनी उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा की इस महीने होने वाली बैठक के मद्देनजर दी है, जिसमें तमाम देशों के नेता शामिल होंगे। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की तरफ से गरीबी और मानवाधिकारों के संबंध में सलाह देने के लिए नियुक्त बेल्जियम के कानूनी विशेषज्ञ ओलिवर डे शटर ने दुनिया भर में सामाजिक सुरक्षा के लिए जुटाए उपायों की कमियों को रेखांकित किया है। उनका कहना है कि मौजूदा सामाजिक सुरक्षा उपाय अल्पकालिक हैं और वित्तपोषण अपर्याप्त। आने वाले समय में गरीबी बहुत तेजी से बढ़ने वाली है।

गरीबी के तय पैमाने के अनुसार मौजूदा गरीबों में करीब सत्रह करोड़ साठ लाख लोग और जुड़ सकते हैं। कोरोना महामारी के चलते पूरी दुनिया में जिस तरह आर्थिक गतिविधियां प्रभावित हुई हैं और बड़े पैमाने पर लोगों के रोजगार चले गए और निरंतर जा रहे हैं, उससे गंभीर चिंता बनी हुई है। आने वाले दिनों में कम आबादी और बेहतर अर्थव्यवस्था वाले देशों के तो इस संकट से जल्दी पार पा लेने की संभावना है। मगर भारत जैसे अधिक आबादी वाले और पहले से लड़खड़ा चुकी अर्थव्यवस्था वाले देशों के लिए यह स्थिति भयावह हो सकती है।

पिछले नब्बे सालों में ऐसी महामंदी का दौर कभी नहीं आया। कोरोना संक्रमण पर काबू पाने के लिए दुनिया के ज्यादातर देशों ने पूर्णबंदी का सहारा लिया, जिसके चलते कल-कारखाने, पर्यटन, होटल, उड्डयन आदि तमाम क्षेत्रों पर असर पड़ा। यही वजह है कि चालू वित्तवर्ष की पहली तिमाही में सभी देशों का सकल घरेलू उत्पाद बुरी तरह प्रभावित हुआ। मगर भारत की अर्थव्यवस्था जिस तरह नीचे बैठ गई, वैसा कभी नहीं हुआ था। जीडीपी करीब चौबीस फीसद नकारात्मक हो गई।

हालांकि सरकार का मानना है और कुछ अर्थशास्त्री भी भरोसा दिला रहे हैं कि आने वाले दिनों में तेजी से सुधार होगा, मगर बाजार की सेहत और कारोबारी गतिविधियों की रफ्तार देखते हुए कोई उत्साहजनक संकेत नजर नहीं आ रहा। पहले ही अर्थव्यवस्था तीन फीसद के आसपास घिसटने लगी थी, जिसके चलते सूक्ष्म, छोटे और मंझोले कारोबार मुश्किल में पड़े हुए थे। इन क्षेत्रों में सबसे अधिक रोजगार सृजन होता है, इसलिए इनकी हालत खराब होने की वजह से बहुत सारे लोगों के लगे-लगाए रोजगार भी खत्म होने लगे थे। तिस पर कोरोना काल की पूर्णबंदी ने उनकी कमर तोड़ दी।

कल-कारखाने बंद होने के बाद उनके आसरे जीवन बसर कर रहे लोगों की रही-सही उम्मीद भी टूट गई और वे झुंड के झुंड शहरों से अपने गांवों की तरफ पलायन करने लगे। हालांकि सरकारों ने छोटे उद्यमों और प्रवासी मजदूरों के लिए के लिए राहत पैकेज की घोषणा की, मगर वे व्यावहारिक कदम साबित नहीं हो रहे। उद्यमी पहले ही कर्ज चुकाने में अक्षम साबित हो रहे थे, उस पर और कर्ज लेने की उनमें हिम्मत ही नहीं बची है। जो लोग गरीबी से ऊब कर गांवों से शहर गए थे, उन्हें वापस उसी जहालत में लौटना पड़ा है।

इनके अलावा असंगठित क्षेत्र के करोड़ों लोगों के धंधे भी चौपट हो गए हैं। इस तरह असंगठित क्षेत्र से जो अर्थव्यवस्था को सहारा मिलता था, वह बंद हो गया है। यह अकारण नहीं है कि गरीबी के चलते अभी से अनेक लोगों को खुदकुशी और अपने नवजात शिशु बेचने जैसे कदम उठाते देखा जा रहा है। भारत में गरीबी और बेरोजगारी का अलग से आकलन हो, तो तस्वीर भयावह हो सकती है। सरकार इसे कैसे संभालेगी, देखने की बात होगी।