पिछले दिनों आई संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट ने भारत के बारे में एक कड़वी हकीकत को रेखांकित किया, वह यह कि खासकर शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चे पर पिछड़ने की वजह से मानव विकास सूचकांक में उसे विकासशील देशों की कतार में भी बहुत पीछे जगह मिली है। ओड़िशा से आई एक त्रासद खबर इस व्यापक सच्चाई का ही एक नमूना है। राज्य के कालाहांडी जिले के कुंझर गांव में एक आदिवासी नीमहकीम को अट्ठाईस दिन के एक बच्चे का इलाज लोहे की गर्म छड़ों से करने के आरोप में रविवार को गिरफ्तार कर लिया गया। इस मामले में शिकायत बाल विकास परियोजना अधिकारी ने दर्ज कराई थी। ऐसी घटनाएं देश के तमाम हिस्सों में होती रहती हैं, मगर उनकी तरफ तब तक ध्यान नहीं दिया जाता, जब तक कोई बड़ा हादसा न हो।

ऐसे वाकयों को खासकर दो वजहों से सहज भाव से लिया जाता है। एक तो इसलिए कि बीमारी या दूसरी तकलीफ दूर करने के नाम पर टोना-टोटका बड़े पैमाने पर प्रचलित है। दूसरे, इसमें पीड़ित पक्ष स्वेच्छा से शामिल होता है। कुंझर की इस घटना में भी यह पहलू देखा जा सकता है। महीने-भर के नवजात शिशु की मां ने बच्चे के पेट पर सूजन आने और उसकी हालत बिगड़ने पर खुद गांव के उस व्यक्ति से संपर्क किया जिसने इलाज के नाम पर लोहे की गर्म छड़ दाग दी। उस व्यक्ति ने वही किया जो वह इलाज के लिए लाए जाने पर औरों के साथ करता रहा होगा। फिर, मां आंगनवाड़ी कार्यकर्ता है, और जब उसकी समझदारी का यह हाल है तो आदिवासी समाज में जागरूकता के स्तर का अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन यह घटना आदिवासी समाज के पिछड़ेपन के साथ-साथ स्वास्थ्य के मोर्चे पर देश की प्रगति का भी आईना है।

ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के अनुभव डराने वाले हैं। कई अध्ययन भी इस बाबत मिल जाएंगे। कहने को भारत में हर साल बड़ी संख्या में डॉक्टर तैयार होते हैं। उनका एक हिस्सा विदेश चला जाता है। जो यहीं रह कर काम करते हैं, उनमें से ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं जाना चाहते। शहरी-संपन्न इलाकों में डॉक्टरों, क्लीनिकों और निदान केंद्रों की भरपूर मौजूदगी दिखेगी, बाकी भारत उनके लिए तरसता रहता है।

ऐसे में आदिवासी, जो हमारे देश के सबसे कमजोर समुदाय हैं, डॉक्टरी मदद मिल पाने की कितनी उम्मीद कर सकते हैं? उचित चिकित्सा सुविधाओं की आसान उपलब्धता न होना ही वह बड़ी वजह है जिससे नीमहकीमों की बन आती है। नीमहकीम भी कई तरह के हैं। एक तो वे हैं जो कोई इलाज नहीं जानते, सिर्फ झाड़-फूंक, टोना-टोटका करते हैं। वे दूसरी जगहों से निराश लोगों को फौरन या कुछ ही समय में ठीक कर देने के दावे दोहराते नहीं थकते। दूसरे प्रकार के नीमहकीम वे हैं जिन्हें अयोग्य चिकित्सक कहा जा सकता है।

किसी के पास सामान्य डिग्री होती है, पर वह विशेषज्ञ होने का दावा करता है। किसी ने जिस चिकित्सा पद्धति की पढ़ाई की है, उसके अलावा अन्य पद्धतियों की भी दवाएं दे रहा होता है। फर्जी डिग्री के भी ढेरों मामले मिलेंगे। एक अध्ययन तो यह तक कहता है कि देश में वास्तविक डॉक्टरों से ज्यादा तादाद नीमहकीमों और झोलाछाप डॉक्टरों की है। उन पर जब-तब कार्रवाई की मांग उठती रहती है। पर यह मांग क्यों नहीं उठती कि समूची आबादी को स्वास्थ्य-सुविधा के दायरे में लाया जाए!