विदेशी मुद्रा भंडार की समृद्धि वैश्विक अर्थव्यवस्था में अनिश्चितताओं से पार पाने की शक्ति प्रदान करती है। इसलिए इसमें कमी आने पर चिंता स्वाभाविक है। पिछले वित्तवर्ष के आखिरी सप्ताह में भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार में 32.9 करोड़ डालर की कमी दर्ज हुई। अब विदेशी मुद्रा भंडार 578.45 अरब डालर रह गया है।
2021 में जब कोरोना का व्यापक प्रभाव था और सारे कारोबार बंदी की मार झेल रहे थे, तब भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार का आकार बढ़ कर 645 अरब डालर तक पहुंच गया था। यह अब तक का उच्चतम स्तर है। मगर फिर दुनिया भर में मंदी की आहट सुनाई देने लगी और निवेश में सुस्ती नजर आने लगी, तब विदेशी मुद्रा भंडार छीजना शुरू हो गया। इस पर सबसे अधिक मार डालर के मुकाबले रुपए की कीमत गिरने से पड़ी।
ताजा गिरावट के पीछे स्वर्ण आरक्षित भंडार में आई कमी को कारण बताया जा रहा है। हालांकि विदेशी मुद्रा भंडार में यह कमी ऐसी नहीं कही जा सकती, जिसे लेकर बहुत चिंता करने की जरूरत है। मगर यही रुझान बना रहा, तो निस्संदेह इसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। पिछले कुछ समय से आयात बढ़ने और डालर के मुकाबले रुपए की कीमत गिरने से लगातार विदेशी मुद्रा भंडार में कमी दर्ज हो रही है।
दरअसल, विदेशी मुद्रा भंडार में मुख्य रूप से डालर संचित करके रखा जाता है, ताकि अगर कभी दुनिया में आर्थिक अनिश्चितता की स्थिति पैदा हो तो जरूरी वस्तुओं के आयात पर असर न पड़े। इस भंडार में पैसा मुख्य रूप से विदेशी निवेश, प्रवासी भारतीयों द्वारा भेजी गई रकम और निर्यात से हुई कमाई के जरिए आता है।
पिछले साल दूसरे देशों, खासकर खाड़ी देशों में रोजगार के लिए गए लोगों ने एक सौ सात अरब डालर से अधिक पैसा भारत भेजा था। मगर इसके बरक्स सच्चाई यह भी है कि बढ़ती मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए अमेरिका सहित दूसरे देशों के केंद्रीय बैंक अपनी ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर रहे हैं, उससे विदेशी निवेशक भारतीय बाजार से अपना पैसा निकाल कर उन देशों में निवेश करने को आकर्षित हो रहे हैं।
फिर, निर्यात के मोर्चे पर अब भी कठिन चुनौतियां बनी हुई हैं। चूंकि तमाम देश आर्थिक मंदी झेल रहे हैं, इसलिए भारत से वस्तुओं का निर्यात नहीं कर रहे। इस तरह विदेशी मुद्रा की आवक कमजोर हुई है। इन्हीं स्थितियों के चलते प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी प्रभावित हुआ है।
एक तरफ तो विदेशी मुद्रा की आवक कम हुई है, दूसरी तरफ हम बहुत सारी चीजों के लिए आयात पर निर्भर हैं। मसलन, पेट्रोलियम पदार्थों और दवा उत्पादन से जुड़े कच्चे माल के लिए दूसरे देशों पर निर्भर हैं। फिर रूस और यूक्रेन युद्ध ने भी आपूर्ति शृंखला बाधित कर दी है। रुपए की तुलना में डालर की कीमत बढ़ने से बाहर से मंगाई जाने वाली वस्तुओं की कीमत अधिक चुकानी पड़ रही है।
हालांकि भारत ने आयात पर निर्भरता कम करके अपना व्यापार घाटा पाटने में सफलता पाई है, मगर यह लंबे समय तक बरकरार रहने वाली प्रक्रिया नहीं है। आयात कम किया गया है, तो निर्यात में भी गिरावट दर्ज हुई है। इसलिए भी यह चिंता का विषय बन गया है कि अगर भारत अपने संचित विदेशी मुद्रा भंडार में से इसी तरह खर्च कर जरूरी चीजों का आयात करता रहा, तो आगे स्थितियां बहुत सहज नहीं दिख रहीं। दुनिया में अभी कम से कम एक साल और मंदी का वातावरण रहने का अनुमान है।