आम चुनाव की तारीखों का एलान करने के साथ ही निर्वाचन आयोग ने गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के गृह सचिवों को हटाने का निर्देश जारी कर दिया। इसके अलावा मिजोरम और हिमाचल प्रदेश के सामान्य विभाग के सचिवों को भी हटाने का आदेश दे दिया।

अब इस फैसले को राजनीतिक रंग देने की कोशिश की जा रही है। खासकर पश्चिम बंगाल सरकार इसे लेकर पक्षपात का आरोप लगा रही है। हालांकि चुनाव की तारीखें घोषित होने से पहले ही निर्वाचन आयोग ने सभी राज्य सरकारों को निर्देश दिया था कि वे चुनाव संबंधी कार्यों से जुड़े उन अधिकारियों का तबादला करें, जिन्होंने अपने पद पर तीन वर्ष का समय पूरा कर लिया है या जो अपने गृह जिलों में तैनात हैं।

मगर राज्य सरकारों ने उस निर्देश पर अमल नहीं किया था। उत्तर प्रदेश सरकार भी नहीं चाहती थी कि उसके गृह सचिव को हटाया जाए, मगर निर्वाचन आयोग ने उसकी दलील नहीं मानी। छिपी बात नहीं है कि चुनाव में शीर्ष अधिकारियों की बड़ी भूमिका होती है। गृह सचिव राज्यों में और जिलाधिकारी जिलों में निर्वाचन आयोग के प्रतिनिधि होते हैं। इसलिए अगर वे निष्पक्ष नहीं होंगे, तो उन जगहों पर चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता पर सवाल उठेंगे ही। इसलिए निर्वाचन आयोग ने छह राज्यों के गृह सचिवों और पश्चिम बंगाल के पुलिस आयुक्त को हटा दिया।

हालांकि यह न तो पहली बार हुआ है और न कानून की नजर में कोई गलत कदम है। जहां भी निर्वाचन आयोग को लगता है कि कोई अधिकारी चुनाव में निष्पक्ष भूमिका नहीं निभा सकता या निभा रहा, तो वह उसे हटा कर उसकी जगह दूसरे अधिकारी को नियुक्त कर सकता है। राजनीतिक दलों की शिकायतों के मद्देनजर चुनाव प्रक्रिया के दौरान भी कई बार अधिकारियों को बदल दिया जाता है।

अभी जिन राज्यों के गृह सचिवों और पश्चिम बंगाल के पुलिस आयुक्त को हटाया गया, उनके बारे में पहले से राजनीतिक दल शक जाहिर कर रहे थे। उनकी संबंधित राज्य सरकारों के प्रति अधिक निष्ठा देखी जा रही थी। पश्चिम बंगाल के पुलिस आयुक्त तो काफी समय से विवादों में घिरे थे।

उनके खिलाफ सीबीआइ ने शिकंजा कसने की कोशिश की थी, तब मुख्यमंत्री खुद धरने पर बैठ गई थीं। ऐसे में भला उन पर कैसे भरोसा किया जा सकता था कि वे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में सहयोग करेंगे, राज्य सरकार की मर्जी के अनुरूप काम नहीं करेंगे। उनके खिलाफ कांग्रेस ने भी शिकायत दर्ज कराई थी। उत्तर प्रदेश के गृह सचिव को लेकर भी इसी तरह की आशंकाएं जाहिर की जा रही थीं।

ऐसे समय में, जब विपक्षी दल मतदान मशीनों में गड़बड़ी की आशंका जताते हुए आंदोलन पर उतरे हुए हैं, बड़े जन समुदाय में भी चुनाव प्रक्रिया पर संदेह पैदा हो गया है, तब ऐसे अधिकारियों को उनके पद पर बनाए रखना किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता, जिनका आचरण संदिग्ध माना जाता रहा है। मगर केवल इतने भर से चुनाव में निष्पक्षता की गारंटी सुनिश्चित नहीं हो जाती।

निर्वाचन आयोग को यह भरोसा कायम करना होगा कि हटाए गए अधिकारियों की जगह जिन्हें नियुक्त किया गया है, वे वास्तव में पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं करेंगे। जिस तरह की सक्रियता और प्रतिबद्धता वह अभी दिखा रहा है, उसे पूरी चुनाव प्रक्रिया के दौरान दिखानी पड़ेगी। आखिर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव निर्वाचन आयोग की साख से जुड़ा विषय है।