हिमाचल प्रदेश में इस वर्ष बरसात की वजह से जो हुआ है, उसने न केवल इस राज्य की समूची आबादी को, बल्कि देश के बाकी हिस्सों में भी सबको यह सोचने पर मजबूर किया है कि इसकी वजहें क्या हैं और अब आगे क्या करना है। राज्य में पहाड़ी इलाकों से गुजरने वाली नदियों का पानी इस स्वरूप में दिखा मानो कोई प्रलय हो और उसमें सब कुछ तबाह हो जाएगा।

नदियों के विकराल रुख की वजह से हिमाचल प्रदेश में बेतरतीब विकसित हुए व्यावसायिक और रिहाइशी इलाकों में जिस पैमाने पर नुकसान हुआ, उसके समांतर ही बड़े पैमाने पर सड़कों की तबाही के मंजर ने यह बताया है कि अगर प्रकृति की सामान्य गति में बाधा पैदा की जाएगी तो उसके नतीजे क्या हो सकते हैं।

अकेले हिमाचल प्रदेश में करीब आठ हजार करोड़ रुपए के नुकसान का आकलन किया गया है। केंद्र और राज्य सरकार के बीच तालमेल से जरूरत भर राशि की व्यवस्था संभव हो जा सकती है, लेकिन इस बार की बाढ़ और बारिश से जिस पैमाने पर जनजीवन तहस-नहस हुआ, उसे फिर से पटरी पर आने में शायद लंबा वक्त लगे।

अन्य पहाड़ी राज्यों की तरह हिमाचल प्रदेश प्रकृति और पर्यटन की दृष्टि से खूबसूरत राज्य रहा है। पर्यटन राज्य की अर्थव्यवस्था का एक मुख्य आधार भी है। इस क्रम में पर्यटकों को खींचने वाली अमूमन सभी जगहों पर जिस तरह के निर्माण हुए हैं, रिहाइश से लेकर होटलों और व्यावसायिक परिसरों की शृंखला खड़ी हुई, उसने राज्य की नदियों के सामान्य प्रवाह को बुरी तरह बाधित किया।

होटलों और सड़क निर्माण के मामले में सबसे बुनियादी पहलुओं की भी अनदेखी की गई और यह तक ध्यान रखना जरूरी नहीं समझा गया कि नदी के प्रवाह से कितनी दूरी तक कोई निर्माण नहीं करना चाहिए। नतीजा यह हुआ कि इस बार जब भारी बारिश के पानी का बोझ नदियों पर पड़ा तो उसने मुख्य प्रवाह के आसपास के इलाकों को तबाह किया।

खासतौर पर मनाली से मंडी के बीच ब्यास नदी में तेज रफ्तार से आ रहे पानी में कई मकान, वाहन, जानवर और होटल बह गए। राष्ट्रीय राजमार्गों की तबाही से पता चला कि रफ्तार और आवाजाही की सुविधा में इजाफा करने के लिए बनाई गई चार लेन की अच्छी सड़कें दरअसल किस संकट को न्योता दे सकती हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान के एक अध्ययन के मुताबिक कुछ साल पहले हिमाचल में एक सौ अठारह हाइड्रो परियोजनाएं चल रही थीं, जिनमें सड़सठ ऐसी जगहों पर हैं, जहां पहाड़ कभी भी खिसक सकते हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि विकास वक्त की जरूरत होते हैं। लेकिन अगर इसमें संतुलन का ध्यान नहीं रखा जाता है तो उसके नतीजे क्या सामने आ सकते हैं, हिमाचल की त्रासदी ने यही बताया है। नदियों से अवैज्ञानिक तरीके से खनन, पहाड़ों की सुरक्षित स्तर तक कटाई करके बनाई गई सड़कों को नब्बे डिग्री के कोण पर काटना, बड़ी ढांचागत परियोजनाएं और अनेक गतिविधियों की वजह से पहाड़ों की संरचना में आई आंतरिक कमजोरी, पहाड़ों के सीने को भेद कर सुरंगों के निर्माण आदि का परिणाम ही है कि बारिश के दिनों में भूस्खलन की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी देखी गई है।

कहा जा सकता है कि व्यापक तबाही का मंजर देखने के बाद अब इसके कारणों की ओर सबका ध्यान जा रहा है। ऐसी आपदाओं से बचाव के लिए व्यापक तंत्र का गठन वक्त का तकाजा है। मगर क्या अब संभलने के क्रम में इससे मिले सबक को याद रखा जाएगा? प्रकृति के साथ रहते हुए मनुष्य ने जीवन-स्थितियों को बेहतर करने के उपाय निकाले। लेकिन मनुष्य की गतिविधियों की वह हद कहां है, जिसमें प्रकृति जीवन देने के बजाय तबाही का जरिया बन जा रही है?