कोयला मजदूरों की हड़ताल का व्यापक असर पड़ा है। पहले दिन बहुत सारी खदानों में कोयला उत्पादन लगभग पूरी तरह ठप्प रहा और इसमें पचहत्तर फीसद की गिरावट दर्ज की गई। बल्कि देश के कुल कोयला उत्पादन में अस्सी फीसद का योगदान देने वाले सीआइएल, यानी कोल इंडिया लिमिटेड से आई खबरों की मानें तो रोजाना जहां औसतन पंद्रह लाख टन कोयला निकाला जाता था, वह गिर कर महज तीन लाख टन पर आ गया। गौरतलब है कि देश की व्यावसायिक ऊर्जा से संबंधित जरूरतों का आधा हिस्सा कोयले से ही मिल पाता है। अगर हड़ताल की यही स्थिति एक-दो दिन और बनी रही तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिजली संयंत्रों को र्इंधन की आपूर्ति किस तरह प्रभावित होगी और उसके बाद कैसे हालात पैदा हो सकते हैं। खबरों के मुताबिक चार बिजली संयंत्रों में सिर्फ तीन दिन का और तेरह में एक हफ्ते से भी कम का र्इंधन बचा हुआ है।
माना जा रहा है कि पिछले चार दशक के दौरान यह सबसे बड़ी औद्योगिक हड़ताल है, जिसने सरकार के सामने एक गंभीर चुनौती पेश कर दी है। गौरतलब है कि मजदूर संगठन मुख्य रूप से ‘कोल इंडिया के विनिवेश और पुनर्गठन’ के खिलाफ हड़ताल पर हैं और वे अपनी दूसरी कई मांगों के अलावा ऐसी नीतियों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं, जिनके तहत कोयला क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण को खत्म कर उस पर निजी क्षेत्र का आधिपत्य स्थापित किया जा सकता है।
हालांकि सरकार ने विवाद से बचने के लिए पहले जरूर सफाई दी थी कि वह कोयला क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण पूरी तरह समाप्त नहीं करेगी। लेकिन जब तक राष्ट्रीय संपदा के इस्तेमाल में पारदर्शिता सुनिश्चित नहीं की जाएगी, तब तक ऐसे बचाव पर कितना भरोसा किया जा सकता है। इस मसले पर अध्यादेश जारी कर सरकार ने यह साबित भी कर दिया। इसके विरोध में न सिर्फ सीटू, एटक, इंटक जैसे मजदूर संगठनों ने तीखी प्रतिक्रिया जताई, बल्कि खुद आरएसएस के मजदूर संगठन भारतीय मजदूर संघ ने भी सवाल उठाया कि आखिर बजट सत्र के ठीक पहले इस अध्यादेश की क्या अनिवार्यता थी; यह सरकार लगातार झूठ बोल रही है।
दरअसल, केंद्र सरकार ने आर्थिक सुधारों पर जोर देने के क्रम में लगभग ढाई महीने पहले कोयला क्षेत्र के दरवाजे निजी कंपनियों के लिए खोलने का फैसला किया था। इसी के मद्देनजर निजी कंपनियों के भी नीलामी में भाग लेने से संबंधित अध्यादेश जारी कर दिया गया। जबकि कुछ समय पहले कोयला घोटाले से जुड़े मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने दो सौ चौदह कोयला खदानों का लाइसेंस रद्द कर दिया था। यह छिपा नहीं है कि आर्थिक सुधारों के दौर में 1993 से 2010 के बीच नियम-कायदों की अनदेखी करके किस तरह बिना किसी रोक-टोक के कोयला खदानों का आबंटन किया गया था। दुनिया में कोयला उत्पादन के क्षेत्र में अग्रणी देश और प्रचुर भंडार होने के बावजूद आखिर क्या वजहें हैं कि भारत को अरबों रुपए का कोयला आयात करना पड़ता है। उत्पादन बढ़ाने के वे कौन-से इंतजाम हैं, जिनसे सरकार और उसके संबंधित महकमे सक्षम नहीं हैं? लगता है, पिछले दो-ढाई दशक के दौरान व्यवस्थागत कमियों को दुरुस्त करने में अपनी विफलता का इलाज अकेले निजीकरण को मान लिया गया है।
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