प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद के वित्तपोषण पर लगाम लगाने का आह्वान किया है। यह वक्त का तकाजा है। यों यह सुझाव पहली बार सामने नहीं आया है। पर पेरिस में हुए हमले के बाद, जब दुनिया भर में आतंकवाद पर चर्चा हो रही है, इस बहस को और प्रासंगिक बनाने की जरूरत है, ताकि यह सिर्फ विलाप होकर न रह जाए। प्रधानमंत्री ने सीबीआइ, भ्रष्टाचार निरोधक एवं सतर्कता ब्यूरो के इक्कीसवें सम्मेलन और परिसंपत्ति वापसी पर छठे वैश्विक सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि वित्तपोषण के स्रोत को रोकने से आतंकवादियों की क्षमताएं सीमित होंगी और वे आसानी से हमलों को अंजाम नहीं दे पाएंगे।

आतंकवादियों को मिल रहे धन का जरिया बंद हो सके तो दूसरे संगठित अपराधों पर भी बहुत हद तक लगाम लग सकती है, क्योंकि आतंकवादी मादक पदार्थों की तस्करी, हथियारों की तस्करी, वाहनों की चोरी, नकली मुद्रा जैसे अनेक संगठित अपराधों के जरिए पैसे का इंतजाम करते हैं। तालिबान ने अफीम की खेती और उसके कारोबार का खूब सहारा लिया। आतंकवाद के आर्थिक स्रोत को बंद करने का सुझाव प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों जी-20 के सम्मेलन में भी रखा था। जाहिर है, इस पर असहमति की गुंजाइश नहीं हो सकती। पर समस्या यह है, जैसा कि मोदी ने भी कहा है, उदारीकरण और वैश्वीकरण के कारण अपराध-जनित आय को दुनिया में कहीं भी लगाने की क्षमता बढ़ गई है। सम्मेलन में शिरकत कर रहे इंटरपोल के महासचिव जर्गन स्टाक ने भी कहा कि इक्कीसवीं सदी में यह मामला काफी चुनौतीपूर्ण हो गया है, जब एक बटन दबाने से काफी मात्रा में धन का अवैध प्रवाह सीमा पार चला जाता है।

कुछ लोग यह भी मानते हैं कि आतंकवाद काले धन के बगैर नहीं पनप सकता। इस दलील को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता, पर साथ ही, यह नहीं भूलना चाहिए कि काले धन और आतंकवाद के वित्तपोषण में फर्क है। काला धन हर हाल में अवैध गतिविधि या परिणाम है, पर कर-चोरी या किसी और ढंग से काला धन हासिल करने वालों का मकसद उसे सफेद करना यानी वैध संपत्ति में बदलना होता है। इनमें से काफी मात्रा अवांछित कामों में भी इस्तेमाल होती होगी, पर जरूरी नहीं कि वह आतंकवाद हो। आतंकवाद के वित्तपोषण का अर्थ है, पैसा कहीं से भी आए, वह इसी मकसद के लिए इस्तेमाल होगा। दुनिया आतंकवाद को लेकर तो बुरी तरह विचलित है, पर क्या वह पैसे के गैर-पारदर्शी प्रवाह को लेकर भी चिंतित है? खुद भारत में सबसे ज्यादा एफडीआइ ‘मॉरीशस रूट’ से आता है। फिर, पी-नोट का प्रावधान है जो अपनी पहचान छिपा कर शेयर बाजार में पैसा लगाने की छूट देता है।

बेशक, इस तरह के सारे निवेश को आतंकवाद से जोड़ना सही नहीं होगा, मगर छिपने-छिपाने की व्यवस्था रहेगी, तो हम यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि आतंकवादी संगठन उसका लाभ नहीं उठाएंगे? हथियारों और गोला-बारूद की तस्करी भी आतंकवाद के लिए बड़ी मददगार साबित होती है। आखिर क्लाश्निकोव और एके-47 राइफल और दूसरे बहुत-से अत्याधुनिक हथियार तथा उपकरण उनके पास कैसे पहुंच जाते हैं? संयुक्त राष्ट्र ने हथियारों की तस्करी को मानवता के लिए खतरा मानते हुए इस पर लगाम लगाने के लिए एक करार की पहल की थी। इस पर तमाम देशों ने हस्ताक्षर किए, मगर करार पर अमल कैसा हुआ यह बहुत-सी दुखद घटनाओं से जाहिर है।