तकनीकी विस्तार के इस दौर में सूचनाएं और जानकारियां जुटाने के मामले में किसी आग्रह या जिद वश पारंपरिक स्रोतों पर निर्भर रहना स्वाभाविक ही कुछ लोगों को खटक सकता है। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में यह तकनीकी क्रांति का दौर है। सूचनाएं और जानकारियां पलक झपकते हाजिर हो जाती हैं। जिन चीजों के लिए घंटों या कई दिन पुस्तकालयों, संग्रहालयों आदि की खाक छाननी पड़ती थी, अब वे अंगुली के एक इशारे पर मिल जाती हैं।
ऐसे में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक मामले में राय बनाने के लिए अत्याधुनिक तकनीक के रूप में इस्तेमाल हो रही कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग किया, तो हैरानी की बात नहीं। दरअसल, एक हत्या के मामले में जमानत की याचिका पर न्यायालय विचार-विमर्श कर रहा था। इसी सिलसिले में उसने जानने की कोशिश की कि दुनिया भर के न्यायशास्त्र इस बारे में क्या कहते हैं।
अदालत को वही तथ्य हासिल हुए, जो अपने यहां के न्याशास्त्र में हैं। यानी जघन्यतम हत्या के मामले में उसकी प्रकृति का अध्ययन करने के बाद ही सजा या जमानत पर विचार किया जा सकता है। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने संबंधित मामले में निर्णय तक पहुंचने के लिए बहुत साफगोई से स्वीकार किया कि उसने कृत्रिम बुद्धिमत्ता का सहयोग लिया है, मगर उसने यह भी स्पष्ट कर दिया कि निचली अदालतों को इसे नजीर के रूप में नहीं लेना चाहिए।
दरअसल, तकनीकी संसाधनों की अपनी सीमाएं हैं। कृत्रिम बुद्धिमत्ता के उपयोग पर बेशक आज बहुत बल दिया जा रहा है और इसे एक अनुपम उपलब्धि के तौर पर रेखांकित किया जा रहा है, मगर हकीकत यही है कि वह कभी भी नैसर्गिक मानवीय मेधा का विकल्प नहीं हो सकती। जहां भी निर्णय लेने की जरूरत है, कृत्रिम मेधा पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।
इस दृष्टि से पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के ताजा मामले में लिए गए निर्णय को एक संदेश के रूप में देखा जाना चाहिए। कुछ दिनों पहले सर्वोच्च न्यायालय ने भी तमाम अदालतों को निर्देश दिया था कि वे कानूनी मसलों में विकिपीडिया जैसे मंचों पर निर्भर न रहें। न्यायिक प्रविधियां प्रामाणिक पुस्तकों से ही सिद्ध हो सकती हैं।
ऐसा उसने इसलिए कहा था कि सूचना के तमाम मंच विकसित तो हो गए हैं, मगर उनमें सूचनाएं और जानकारियां अक्सर भ्रामक दी गई हैं। कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाले यंत्र भी चूंकि तमाम सूचनाएं उन्हीं मंचों को खंगालने के बाद प्रस्तुत करते हैं, इसलिए उन्हें बहुत भरोसेमंद नहीं माना जा सकता।
बहुत सारे मामलों में तकनीकी संसाधनों के उपयोग से अदालतों के कामकाज में बहुत तेजी आई है। तमाम फैसलों को डिजिटल रूप में सुरक्षित रखने और सार्वजनिक उपयोग के लिए उपलब्ध कराने में मदद मिली है। अनेक ऐसी वेबसाइटें और पोर्टल हैं, जिन पर न्यायिक गतिविधियों की जानकारी उपलब्ध कराई जाती हैं। उन पर अदालतों के फैसले उपलब्ध हैं। उनकी मदद लेने में कोई हर्ज नहीं।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसलों को अंग्रेजी के साथ हिंदी में भी उपलब्ध कराने का निर्णय किया, तो उनके अनुवाद के लिए तकनीकी अनुवादक की मदद ली जा रही है। ऐसे अनेक काम तकनीकी संसाधनों की मदद से किए जा रहे हैं। मगर जहां सांविधानिक प्रावधानों या किन्हीं विशेष स्थितियों में राय बनाने की जरूरत पड़ती है, वहां तकनीकी संसाधनों पर भरोसा करना खतरे से खाली नहीं माना जा सकता। इसीलिए पहले सर्वोच्च न्यायालय और अब पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने तकनीकी सुविधाओं की सीमाएं रेखांकित की हैं।