अतीत को भुला देना कोई अच्छी बात नहीं, मगर अतीत से बंध कर भविष्य को चौपट कर बैठने से बुरा भी कुछ नहीं। अतीत की कड़वाहटें सबक हो सकती हैं। वे दोहराई न जा सकें, इसके लिए तैयार रहना एक स्वस्थ और सभ्य समाज का लक्षण है। अतीत को मिटाने की जिद से कड़वाहटें खत्म तो नहीं होतीं, नई कड़वाहटें जरूर पैदा हो जाती हैं। ऐसी ही कुछ बातें सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए कहीं। एक वकील ने याचिका दायर कर मांग की थी कि आक्रांताओं की ओर से बदले गए प्राचीन, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थानों के मूल नामों का पता लगाने और दुबारा वही नाम रखने के लिए नामकरण आयोग गठित करने का आदेश दिया जाए।
अतीत को वर्तमान और भविष्य पर हावी नहीं होने दिया जा सकता
इस याचिका को खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अतीत को वर्तमान और भविष्य पर इतना हावी नहीं होने दिया जा सकता कि भारत अतीत का बंदी बन कर रह जाए। अदालत की इस टिप्पणी से शायद उन लोगों को कुछ सीख मिली होगी, जो मानते हैं कि जगहों, सड़कों, इमारतों आदि के नाम बदल देने से इतिहास भी बदल जाएगा। अतीत में आक्रांताओं ने जो किया, उसका बदला इस तरह लिया भी नहीं जा सकता।
नाम बदलने को लेकर कहीं, विरोध तो कहीं चर्चाएं होती रही हैं
यह कोई नई या पहली मांग नहीं है। इससे पहले भी अनेक जगहों पर विभिन्न संगठन मांग करते रहे हैं। कई सरकारों ने जगहों, सड़कों, बागों, इमारतों आदि के नाम बदले और अपनी रुचि के अनुसार उनके नाम रखे भी हैं। स्वाभाविक ही, इसे लेकर कहीं, विरोध तो कहीं चर्चाएं होती रही हैं। जगहों, इमारतों, सड़कों आदि का नामकरण इसलिए किया जाता है कि इस तरह हम अपने इतिहास, सभ्यता और संस्कृति से जुड़े व्यक्तियों और प्रतीकों को न सिर्फ सम्मान देते हैं, बल्कि उन्हें सुरक्षित रखने का भी प्रयास करते हैं।
भारत सामासिक संस्कृति वाला देश है। समय-समय पर इसने अनेक विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण झेले हैं। मगर उन आक्रांताओं में से जिन्होंने इस देश की संस्कृति और सभ्यता को समृद्ध करने में योगदान किया, उन्हें भी अपनी स्मृति में बचाए रखा है। उनके नाम पर भी जगहों के नाम रखे गए हैं। यह इस देश की उदारता है कि यहां विभिन्न धर्मों और आस्थाओं के लोग आए या विकसित हुए और उन्हें यहां अपनी पहचान के साथ रहने की आजादी मिली। ऐसे में जब हम नामों को बदलने का प्रयास करते हैं, तो एक तरह से अपनी सामासिकता और उदारता को भी नष्ट करने का प्रयास कर रहे होते हैं।
शब्दों की अपनी यात्रा होती है, वे खुद समय के साथ घिस कर अपनी मूल बनावट बदल लिया करते हैं। इसलिए बहुत सारे पुराने नाम बदल कर अब दूसरी शक्ल में चल पड़े हैं। इसलिए उन्हें बदल देने से कई अड़चनें तो पैदा हो सकती हैं, हासिल कुछ खास होने वाला नहीं। जब किसी जगह, इमारत या शहर का नाम बदला जाता है, तो सारे दस्तावेजों में उसे बदलना पड़ता है। मगर केवल भारत में नहीं, पूरी दुनिया में नाम बदलने का चलन देखा जाता है। नई सरकार आती है तो पिछली सरकार की योजनाओं तक के नाम बदल देती है। भारत में अगर इस तरह एक बार जगहों के नाम बदलने का आधिकारिक सिलसिला शुरू होगा, तो फिर उसका कोई अंत न होगा। जो नाम यहां के लोगों की जेहन में बसे हुए और सामासिक संस्कृति का सूत्र बन चुके हैं, उन्हें बने रहने देने में हर्ज ही क्या।