सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों और निर्देशों पर अमल न करना जैसे सरकारों की आदत बन गई है। वे प्राय: उनसे बचने का प्रयास करती या फिर उन्हें नजरअंदाज करती देखी जाती हैं। भीड़ हिंसा के मामले में पांच साल पहले सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुझाए उपचारात्मक उपायों पर अमल करने संबंधी निर्देशों के मामले में भी यही हुआ।

अगर केंद्र और राज्य सरकारों ने गंभीरता से उन उपायों पर अमल किया होता तो नए सिरे से भीड़ हिंसा की घटनाएं न हो पातीं। मगर ऐसी घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी ही हुई है। इसे लेकर दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और महाराष्ट्र, ओड़ीशा, राजस्थान, हरियाणा, बिहार और मध्यप्रदेश की राज्य सरकारों से पांच साल पहले जारी निर्देश के बाद से वर्षवार आंकड़े तलब किए हैं कि भीड़ हिंसा रोकने की दिशा में क्या काम किए गए हैं।

गौरतलब है कि पांच साल पहले तहसीन पूनावाला मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को कड़ी चेतावनी देते हुए ऐसी घटनाओं पर रोक लगाने के लिए कुछ उपचारात्मक उपाय सुझाए थे, जिन पर सभी राज्यों को अनिवार्य रूप से अमल करना था। मगर स्थिति यह है कि जब-तब विभिन्न राज्यों से गोमांस तस्करी के शक में या फर्जी खबरों, अफवाहों के प्रभाव में भीड़ हिंसा की घटनाएं सामने आ जाती हैं।

पिछले कुछ वर्षों में भीड़ हिंसा एक भयावह अराजक प्रवृत्ति के रूप में उभरी है। सबसे अधिक ऐसी घटनाएं गोरक्षा के नाम पर हुई हैं। समाज में कुछ ऐसे स्वयंभू गोरक्षक दल पनपे हैं, जो गोमांस और गो-तस्करी पर निगरानी रखते हैं। अगर इन्हें किसी भी तरह का शक होता या कहीं से कोई सूचना मिलती है कि गोमांस या गायों की तस्करी की जा रही है, तो वे मामले की बिना जांच-पड़ताल किए हमला कर देते हैं।

कई मामलों में तो जघन्यतम हत्याएं कर दी गईं। इनमें विशेष रूप से एक ही समुदाय के लोग शिकार बनते हैं। ऐसी घटनाओं के मद्देनजर तहसीन पूनावाला मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि किसी भी व्यक्ति या समूह को इस तरह निगरानी करने, कानून को अपने हाथ में लेने और ऐसे मामलों का फैसला सड़क पर करने का अधिकार नहीं है। जब किसी प्रकार के विचार वाला कोई समूह कानून को अपने हाथों में लेता है तो इससे अराजकता और अव्यवस्था फैलती है और अंतत: हिंसक समाज का उदय होता है। यह शासन और संविधान के ऊंचे मूल्यों का अपमान है।

सर्वोच्च न्यायालय ने भीड़ हिंसा को रोकने के लिए सरकारों को सख्त हिदायत देते हुए कहा था कि भीड़ हिंसा वाले क्षेत्रों की पहचान कर राज्य सरकारें प्रत्येक जिले में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को नोडल अधिकारी के रूप में नामित करें। अपनी शक्ति का प्रयोग करके भीड़ को तितर-बितर करना प्रत्येक पुलिस अधिकारी का कर्तव्य होगा। संवेदनशील क्षेत्रों में पुलिस गश्त बढ़ाई जाए।

पुलिस गैर-जिम्मेदाराना प्रचार करने वाले व्यक्तियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करेगी। मगर हकीकत यह है कि अब भी लोगों को भीड़ के रूप में इकट्ठा होकर हिंसा करने के लिए उकसाने के मकसद से फर्जी और भड़काऊ सूचनाएं प्रसारित करने और निगरानी समूह बनाने वाले बाज नहीं आए हैं। बिहार के सारण और महाराष्ट्र के नासिक में गोमांस की तस्करी के शक में हुई भीड़ हिंसा हाल के उदाहरण हैं। देखना है, सरकारें इस मामले में क्या सफाई पेश करती हैं।