भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से मेरा संबंध सबसे पुराना है: मैं उसके आरंभ से ही उससे जुड़ा रहा हूं, जैसे कि श्रीकांत वर्मा पुरस्कार और देवीशंकर अवस्थी सम्मान से भी। इस बार भारतभूषण पुरस्कार के लिए कविता चुनने का जिम्मा मेरा था। मैंने पिछले वर्ष पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सैकड़ों कविताएं पढ़ीं। बड़ी संख्या में पत्रिकाएं मेरे पास आती हैं, इसलिए यह करना कठिन न था। फिर भी, हो सकता है कि कुछ छूट गई हों। मैंने अपना चुनाव तय करके पुरस्कार की संयोजक प्रख्यात भाषाविद और भारतजी की बड़ी बेटी अन्विता अब्बी को यह विज्ञप्ति भेजी:
पेड़ : ‘प्रकाश/ हंसते हुए हरितवर्ण के परदे पर मैं कान धरता था/ यद्यपि वह हिलता था/ अत: मैं हिलते हुए हरितवर्ण पर कान धरता था/ यद्यपि वह हंसता था/ अत: मैं हंसते हुए हरितवर्ण पर कान धरता था/ यद्यपि हरितवर्ण हंसते हुए हिलता था/ अत: मैं हंसने और हिलने पर कान धरता था/ हंसना गूंजता था और हिलना उसे संभाले रखता था/ हिलने में संभली हुई गूंज पर मैं कान धरता था/ हरितवर्ण गूंज कानों से टकरा कर/ अस्थियों में उतरती थी/ अस्थियों का एक हरा पेड़ होता था/ पेड़ में अनेक शाखाएं/ पेड़ की हरित अस्थि-शाखाओं के साथ/ खड़ी देह हरा पेड़ थी/ पेड़ पर नीला आकाश झुकता था/ मैं झुके आकाश पर कान धरता था। ’
(समास-10 पत्रिका में 2014 में प्रकाशित)
‘‘इधर कविता इस कदर विषयाक्रांत हो गई है कि विषय को ही अर्थ मान लिया जा रहा है और कविता को अक्सर यह याद नहीं रहता कि वह यथार्थ को व्यक्त भर नहीं करती, उसे रचती भी है: वह भाषा को वहां ले जाने की चेष्टा करती है, जहां वह पहले शायद न गई हो। प्रकाश की कविता चित्रांकन, शब्दक्रीड़ा और क्रिया की आवृत्ति से कुछ ऐसा करती है कि हम देखने के साथ-साथ कविता में कुछ अनूठा सुनने लगते हैं। उसकी संरचना एक तरह का नया यथार्थ खोजती-रचती है।
एक युवा कवि की कल्पनाशीलता, साहस और कौशल का यह अच्छा उदाहरण है और इसे मैंने भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार 2015 के लिए चुना है।’’
यह निर्णय करते मैं यह भूल गया था कि इस पुरस्कार में आयुसीमा पैंतीस वर्ष की है। अन्विताजी ने फोन कर आयु पूछी तो चैक करने पर वह उनतालीस वर्ष की निकली। उसके बाद स्पष्ट था कि पुरस्कार प्रकाश को नहीं दिया जा सकता। फिर खोजबीन की और ‘अपनी रुचि और दृष्टि की सीमा में’ मुझे कोई और कविता पुरस्कार के योग्य नहीं लगी। इस निर्णय या अनिर्णय की घोषणा के बाद कई मित्रों ने टिप्पणियां की हैं।
एक ने मुझ पर युवा कविता का अनपढ़ होने का आरोप लगाया; एक कवयित्री ने फोन पर संदेश दिया कि ‘कविता में अंतर्वस्तु भी उतनी ही जरूरी है, जितनी भाषा।… आप जैसे दुनिया और कविता को देखते हैं वैसी न कविता और दुनिया। आपकी कद्र करती हूं, पर किसी पूर्वग्रह और जाति-विशेष के आधार पर पुरस्कार नहीं दिया जाना चाहिए।… मेरी कविता कमजोर और अयोग्य नहीं, न रियायत की मांग करती है।… संसार सबके कर्मों का मूल्यांकन करता है। कर्म ही स्मारक है। आपके जाने के बाद संसार आपका भी मूल्यांकन करेगा।’ एक पूर्व पुरस्कृत कवि ने कहा कि ‘आपने किसी को इस बार पुरस्कार न देकर एक तरह से हमें पुन: सम्मानित किया है।’
एकाध को मैंने याद दिलाया कि युवाओं को इन दिनों जितने पुरस्कार मिलते हैं उतने क्या, एक भी नहीं था जब हम युवा थे। हमारी पीढ़ी तक के युवा कवियों या लेखकों को कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला। इससे हमारी सृजनशीलता में या उसके वस्तुनिष्ठ आकलन में कोई कमी नहीं आई। हममें से अनेक ने युवाओं को अपनी पीढ़ी के बाद के युवाओं को जगह, प्रकाशन और सम्मान देने में कभी कोताही नहीं की। हर पुरस्कार निर्णायक की बुद्धि और रुचि पर निर्भर करता है। वह ऐसा भी हो सकता है, जिससे सब, लगभग सब असहमत हों।
मेरा यह मानना है कि आज की युवा कविता, कुल मिला कर, वैसी ही मीडियाकर या बेनूर है जैसा कि एक समय हमारी युवा कविता थी। हम सभी, जिनमें आज के युवा शामिल हैं, अपने-अपने पूर्वग्रहों से ही दुनिया और कविता को देखते-समझते-जांचते हैं। सब कुछ पढ़ पाना भौतिक और बौद्धिक रूप से किसी के लिए भी संभव नहीं है। आज के युवा भी इसका कम प्रमाण देते हैं कि उन्होंने पहले के कवियों को ध्यान और समझ से पढ़ा और जरूरी लगे तो खारिज किया है। सच तो यह है कि कुल मिला कर आज युवा कविता अपने से पहले वालों द्वारा अर्जित स्वतंत्रता का उपभोग कर रही है और उसने न तो अपने लिए कोई नई अप्रत्याशित जमीन तैयार की है, न ही कोई नई भाषा खोजी है। अक्सर युवा अब पिछलों का नहीं, समकालीनों का ही अनुसरण कर रहे हैं। यह कविता के लिए कठिन समय है।
एक तरह का युगांत
कुछ दिनों पहले शास्त्रीय गायिका और पंडित कुमार गंधर्व की जीवन संगिनी और सहगायिका वसुंधरा कोमकली का देहावसान हो गया। सोमवार को उनके देवास स्थित निवास में एक अनुष्ठान में भाग लेने गया। उनकी बेटी कलापिनी और पोते भुवन ने सारा आयोजन किया। वहां कुमारजी के कमरे, भोजनकक्ष और बरामदे में कुमारजी के साथ बिताया समय याद आता रहा, जो हमेशा वसुंधराजी के उदार आतिथ्य में रसा-पगा होने से बहुत सुस्वादु भी हो जाता था। वे स्पष्टता से कई बार तीखी बात भी कहने से हम लोगों के सामने हिचकिचाती नहीं थीं। पर कुल मिला कर, उनमें स्वाभाविक वत्सलता थी।
वसुंधराजी ने गायन की शिक्षा पहले प्रो. डीआर देवधर से पाई थी, जो कुमारजी के भी गुरु थे और बाद में स्वयं कुमारजी से। अपनी लंबी बीमारी से उबरने के बाद कुमारजी ने जब अपने संगीत का पुनराविष्कार करते हुए उसे सिरे से बदल डाला तो उन्हें, इस बीच हो गई पहली पत्नी की मृत्यु के बाद, कई तरह के सहारों की जरूरत थी। कुमारजी की जिजीविषा प्रबल, उनकी कल्पनाशीलता प्रखर और दुस्साहसी, उनका शरीर नाजुक था और इन सबको जैसे संभालने का कठिन काम वसुंधराजी ने किया। ऐसा कम ही हुआ है कि कोई दूसरे के लिए अपना जीवन और संगीत ही उत्सर्ग कर दे। दशकों तक वसुंधरा ताई ने कुमारजी के जीवन और संगीत में संगत की ऐसे कि कुमारजी की कल्पना ही वसुंधराजी के बिना नहीं की जा सकती थी। वसुंधराजी की संगत प्रतिध्वनियों का एक मनोरम वितान रचती थीं: कुमारजी ने अपनी शारीरिक अशक्यता के बावजूद जो गाने का शास्त्र विकसित किया वह वसुंधराजी के बिना संभव नहीं था। इस गायन में प्रतिध्वनियों और अंतर्ध्वनियों का जो अनूठा खेल होता था उसे वसुंधरा जैसी निष्णात और सुदीक्षित गायिका के बिना सोच पाना असंभव था।
पर वसुंधराजी स्वतंत्र और सक्षम गायिका भी थीं: ग्वालियर घराने पर उनकी गहरी पकड़ थी और परंपरा और नवाचार के बीच एक संवेदनशील, पर सशक्त संतुलन वे बना कर रखती थीं। कई सार्थकताओं में, कुमारजी के देहावसान के बाद, उन्होंने उनकी संगीत-परंपरा को बनाए रखा और धीरे-धीरे अपनी अलग जगह भी बनाई। अपनी बेटी कलापिनी के साथ उनके गायन की महफिल अलग ही सजती थी और उसे प्रशिक्षित कर एक योग्य गायिका बनाने में उनकी केंद्रीय भूमिका रही है। भुवन कोमकली तो उनका ही शिष्य है, पोता होने के अलावा।
देवास में बरामदे में बैठे और कुछ पल कुमारजी के कक्ष में बिताने के बाद मैं सोच रहा था कि यह घर महान गायक का निवास भर नहीं था, देश भर से आने वाले लेखकों-कलाकारों का खुला अड््डा भी था। सबको न्योतते और सबका स्वागत तो कुमारजी करते थे, पर उनका स्नेहिल आतिथ्य वसुंधराजी ही। सौभाग्य से कलापिनी चाहती हैं कि यह घर ऐसा अड््डा बना रहे। वहां महानता थी जिद कर जम कर बैठी हुई, पर दूसरों के लिए हमेशा खुली। इससे बेहतर क्या हो सकता है कि कुमारजी और वसुंधराजी का घर खुला घर रहे!