प्रकृति की अपनी अपनी गति होती है और अगर यह अपनी सामान्य अवस्था में है तो धरती पर जीवन स्थितियां मजबूत होती हैं। लेकिन अगर किन्हीं वजहों से इसका चक्र बाधित होता है तो यही प्रकृति बड़े नुकसान का भी वाहक बनती है। पिछले कुछ सालों से जलवायु परिवर्तन के मसले पर समूची दुनिया में चिंता जाहिर की जा रही है।

लेकिन अब जिस तेज गति से मौसम के रुख में बदलाव और अप्रत्याशित उथल-पुथल देखा जा रहा है, वह निश्चित रूप से एक बड़ी चिंता की वजह होनी चाहिए। पर्यावरण के मसले पर हाल ही में आई एक रपट में जो आकलन सामने आया है, उससे यह समझा जा सकता है कि वह ठंड हो या गर्मी या फिर बरसात, इनका जो असर सामने आ रहा है, उसने सबको चौंकाया है।

कभी कड़ाके की ठंड तो कभी तेज गर्मी या फिर बेमौसम बरसात ने समूचे जनजीवन को बाधित किया है। इसके अलावा, बारिश, ओलावृष्टि, आकाशीय बिजली आदि में असंतुलन की वजह से इस साल के शुरुआती चार महीनों में ही कम से कम दो सौ तैंतीस लोगों की जान चली गई और लगभग साढ़े नौ लाख हेक्टेयर क्षेत्र में लगी फसल बर्बाद हो गई। इस तरह खेती-किसानी को भी व्यापक नुकसान हुआ।

प्रकृति पर किसी का बस नहीं है और उसकी अनिश्चितता के बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। इसलिए अचानक ही होने वाली बरसात, बर्फबारी या फिर तापमान में अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव आदि की वजह से होने वाले नुकसान पर भी किसी का जोर नहीं चलता। चिंता की बात है कि वक्त के साथ मौसम की मार का असर पहले के मुकाबले अब ज्यादा गंभीर होता जा रहा है।

गर्मी, जाड़ा या बरसात आदि में असंतुलन की वजह से पिछले साल जहां देश के सत्ताईस राज्य बुरी तरह प्रभावित हुए थे, वहीं इस साल विपरीत मौसम की वजह से होने वाले हादसों या जानलेवा घटनाओं की चपेट में बत्तीस राज्य आए। विडंबना यह है कि विज्ञान और अन्य आधुनिक आविष्कारों और खोजों के जरिए मनुष्य ने प्रकृति और मौसम को करीब से समझना शुरू तो कर दिया है, लेकिन यह भी सच है कि प्रकृति के स्वाभाविक स्वरूप में मनुष्य ने आधुनिकतम तकनीकों सहित अलग-अलग तरीकों से बड़े पैमाने पर दखल भी दिया है। यह बेवजह नहीं है कि ठंड, गर्मी या फिर बरसात के अलावा तूफान और बर्फबारी की घटनाएं भी असामान्य रूप में सामने आ रही हैं।

हालांकि जलवायु परिवर्तन को लेकर पिछले कई दशकों से विश्व भर में चिंता जताई जा रही है और इसमें पृथ्वी के अनुकूल हालात बनाने के लिए पूर्व-सावधानी के तौर पर कई उपाय भी बताए जाते रहे हैं। लेकिन ऐसे उपायों का हासिल क्या होना है, जिसमें जलवायु के बिगड़ने में जिन देशों की भूमिका ज्यादा है, वही अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लें और पर्यावरण या जलवायु को स्वस्थ बनाने और बचाने का दायित्व गरीब और विकासशील देशों पर थोप दें!

वैश्विक स्तर पर विकसित और धनी देशों में मानव जनित परिस्थितियों की वजह से जलवायु पर पड़ने वाले प्रभावों का नुकसान उन देशों को उठाना पड़ता है, जहां अभी संसाधनों के अभाव की वजह से बचाव के पर्याप्त इंतजाम नहीं किए जा पाते। आज विज्ञान का विकास अपने चरम पर है।

ऐसे में जरूरत इस बात की है कि कुदरत के अपने स्वरूप में दखल न दिया जाए, बदलते मौसम का पक्का अनुमान लगाने की व्यवस्था हो और उसी मुताबिक जानमाल को बचाने के लिए जरूरी इंतजाम किए जाएं। कुदरत के अपने रुख को रोका नहीं जा सकता, लेकिन उससे बचाव के इंतजाम करके नुकसान को काफी हद तक कम जरूर किया जा सकता है।