चुनावी चंदे का विवरण देने को लेकर भारतीय स्टेट बैंक की समय बढ़ाने संबंधी फरियाद पर स्वाभाविक ही सवाल उठने शुरू हो गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने आज तक का समय दिया था कि वह सारा विवरण निर्वाचन आयोग को सौंप दे। उस विवरण को एक हफ्ते के भीतर निर्वाचन आयोग को सार्वजनिक करना था।
मगर अब स्टेट बैंक का कहना है कि बांड के रूप में जो भी चुनावी चंदा दिया और लिया गया था, उसका हिसाब-किताब दो जगहों पर जमा है और उनका मिलान करने में वक्त लग जाएगा, इसलिए उसे तीस जून तक का समय दिया जाए। उसकी यह दलील किसी के गले इसलिए नहीं उतर रही कि आज जब बैंकों का सारा कामकाज डिजिटलीकृत हो चुका है और किसी भी खाते के लेन-देन का विवरण एक बटन दबाते ही निकल आता है, तब स्टेट बैंक को कुल बाईस हजार दो सौ सत्रह बांडों का हिसाब-किताब निकालने में इतना वक्त क्यों लगना चाहिए।
स्टेट बैंक कोई छोटा-मोटा बैंक नहीं है। देश के छोटे से छोटे हिस्से, यहां तक कि दूसरे देशों में भी उसकी शाखाएं हैं, उसके लाखों ग्राहक हैं। इतने बड़े कारोबार को देखने के लिए हजारों कर्मचारी हैं, जो रोज लाखों लेन-देन का हिसाब-किताब रखते हैं। उसके पास अत्याधुनिक साफ्टवेयर हैं। फिर भी हैरानी की बात है कि उसे बाईस हजार बांडों का हिसाब जुटाने के लिए इतना वक्त चाहिए।
बांड के जरिए गुप्त तरीके से चुनावी चंदा लेने की प्रक्रिया को सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले महीने असंवैधानिक करार दिया था। उसने बीते करीब पांच वर्षों में इस तरह हुई चंदे की लेन-देन का विवरण सार्वजनिक करने का आदेश दिया था, ताकि लोगों को पता चल सके कि किस राजनीतिक दल ने किन-किन लोगों और कंपनियों के कितना चंदा लिया।
दरअसल, आरोप था कि कई घाटे में चल रही कंपनियों ने भी राजनीतिक दलों को करोड़ों रुपए का चंदा दिया है। इसमें रिश्वत, कालेधन को सफेद करने और फर्जी नाम से चल रही विदेशी कंपनियों के जरिए धनशोधन का मामला भी बन सकता है। चूंकि चंदा उगाही की इस पूरी प्रक्रिया को सूचनाधिकार के दायरे से बाहर रखा गया था, इसलिए इसके बारे में सही जानकारी नहीं मिल पा रही थी। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने इसे राजनीतिक दलों के बराबरी के हक का उल्लंघन और असंवैधानिक करा दिया था।
कुछ लोगों के इस तर्क को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि स्टेट बैंक इसलिए जून तक का समय मांग रहा है कि तब तक लोकसभा के चुनाव संपन्न हो चुके होंगे और चुनावी चंदे में आए नामों को लेकर राजनीतिक विवाद पैदा होने से बचा जा सकेगा। चूंकि पिछले पांच वर्षों में सबसे अधिक चुनावी चंदा सत्ताधारी दल को मिला है, इसलिए विपक्षी दलों को इस पर अंगुली उठाने का मौका मिल गया है।
सर्वोच्च न्यायालय स्टेट बैंक की फरियाद पर क्या रुख अख्तियार करता है, देखने की बात है। मगर जिस तरह उसने इस पूरी प्रक्रिया को असंवैधानिक करार दिया, उससे उम्मीद बनती है कि इस पर वह कड़ा रुख अपना सकता है। स्टेट बैंक की इस दलील को मान भी लिया जाए कि चुनावी बांड के ब्योरे का एक हिस्सा हाथ से दर्ज किया गया है, तब भी अगर मंशा सही हो, जिम्मेदारी से बचने का मामला नहीं हो और सिर्फ कुछ कर्मचारियों को इसी काम में लगा दिया जाए तो सारा विवरण सामने आने में वक्त नहीं लगेगा।
