मणिपुर हिंसा को नौ महीने से ऊपर हो गए, मगर अभी तक कहीं से भी ऐसा नहीं लगता कि उस पर काबू पाने का कोई संजीदा प्रयास किया जा रहा है। आए दिन वहां हिंसा भड़क उठती है और लोग मारे जाते हैं। अब भी पुलिस थानों, विशेष बलों की चौकियों पर हमला कर भीड़ हथियार लूट ले जाती है और सुरक्षाबल उस पर काबू पाने में विफल नजर आते हैं। पिछले हफ्ते पूर्वी इंफल जिले के विशेष बल के शिविर में घुस कर भीड़ ने कई अत्याधुनिक हथियार और गोले-बारूद लूट लिए। इस घटना के बाद सात सुरक्षाकर्मियों को निलंबित कर दिया गया है।
हिंसा में सहयोगी सुरक्षाकर्मी को निलंबित करने का विरोध
बताया जा रहा है कि लूटे गए हथियार और गोला-बारूद भी बरामद कर लिए गए हैं। निस्संदेह इससे सुरक्षाबलों की मुस्तैदी का पता चलता है, मगर इस घटना में उजागर हुए अन्य तथ्य ज्यादा चिंता पैदा करने वाले हैं। दरअसल, एक पुलिसकर्मी को एक उपद्रवी समूह में शामिल देखा गया था, जिसके चलते उसे निलंबित कर दिया गया। उसके निलंबन के खिलाफ भीड़ उग्र हो गई और थाने पर हमला कर दिया। वह उसका निलंबन वापस लेने की मांग कर रही थी। इससे एक बार फिर जाहिर हुआ है कि जिन लोगों पर सुरक्षा की जिम्मेदारी है, वही उपद्रवियों का सहयोग कर रहे हैं।
दो हिस्सों में बंट गया है प्रशासन, स्थानीय लोग भी बंटे
मणिपुर में इतने दिनों से चल रही हिंसा में अब वहां का समाज, यहां तक कि प्रशासन भी दो हिस्सों में बंट चुका है। मैतेई इलाकों में कुकी सुरक्षाकर्मियों की तैनाती नहीं की जा सकती और न कुकी बहुल इलाकों में मैतेई सुरक्षाकर्मियों की। जब कुकी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार और उन्हें नंगा घुमाने का वीडियो सामने आया था, तब भी यह तथ्य उजागर हुआ था कि उन महिलाओं को सुरक्षाकर्मियों ने ही भीड़ के बीच ले जाकर छोड़ दिया था।
सुरक्षाकर्मियों के भीतर से जब इस तरह किसी समूह की हिंसा को समर्थन मिलने लगे, तो वहां शांति प्रयासों को गति मिलना मुश्किल हो जाता है। मणिपुर में भी यही हो रहा है। इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि सुरक्षाबलों के शिविरों, शस्त्रागारों आदि पर हमला बोल कर हथियार लूटने की घटनाओं के पीछे ऐसे ही समर्थक सिपाहियों-अधिकारियों की शह रही हो। मणिपुर में हिंसा भड़कने के बाद से इब तक हथियार लूटने की अनेक घटनाएं हो चुकी हैं और उनमें बड़े पैमाने पर हथियार लूटे जा चुके हैं। उनमें से बहुत सारे हथियारों की बरामदगी अब तक नहीं हो सकी है। जाहिर है, उनका उपयोग हिंसा में हो रहा है।
वहां हिंसा रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने एक विशेषाधिकार समिति गठित की थी, वहां हुई घटनाओं की जांच के लिए बाहर के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की अगुआई में दल बनाया गया था, मगर वह प्रयास अभी तक इसलिए पूरी तरह कामयाब नजर नहीं आया है कि स्थानीय प्रशासन से जैसी मदद उन्हें मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिल पा रही। मणिपुर हिंसा के पीछे राजनीतिक मकसद साफ है। प्रशासन का पक्षपातपूर्ण रवैया भी अक्सर दिखता रहा है! ऐसे में जब तक हिंसा रोकने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई जाती, इस दिशा में किसी सकारात्मक नतीजे की उम्मीद धुंधली ही बनी रहेगी। मगर अभी तक तो न केंद्र की तरफ से और न राज्य सरकार की तरफ से ऐसा कोई कदम उठाया गया है, जिससे जाहिर हो कि वे इसे रोकने को लेकर सचमुच गंभीर हैं!