महाराष्ट्र में एक बार फिर आरक्षण की आग भड़क उठी। हालांकि आंदोलन के हिंसक रुख अख्तियार कर लेने के बाद मराठा क्रांति मोर्चा ने आंदोलन वापस ले लिया है और इस दौरान हुए नुकसान के लिए लोगों से माफी मांगी है। मगर इससे एक बार फिर रेखांकित हुआ है कि सियासी फायदे के लिए शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का आश्वासन देने वाले राजनेताओं के लिए यह मसला वाकई टेढ़ी खीर बन चुका है। देश के अलग-अलग हिस्सों में समय-समय पर आरक्षण की मांग सिर उठाने लगती है। विचित्र है कि अब वे जातियां आरक्षण की मांग करने लगी हैं, जो समाज में अपेक्षाकृत सुर्खरू मानी जाती हैं।
हरियाणा में जाट, राजस्थान में गुर्जर और गुजरात में पटेल आरक्षण के लिए दबाव बनाते रहे हैं, तो महाराष्ट्र में मराठा। इनकी मांगें अनायास नहीं हैं। उन्हें राजनीतिक दलों ने ही सियासी फायदा उठाने के मकसद से उकसाया। यह जानते हुए भी कि आरक्षण को लेकर संविधान में सीमा तय है, अलग-अलग राज्यों में जिन अगड़ी जातियों की बहुलता है, उन्हें राजनीतिक दल अपने पाले में करने की मंशा से आरक्षण देने का आश्वासन देते रहे हैं। पर जब वही दल सत्ता में आए और उनका आरक्षण का वादा याद दिलाया गया, तो आंखें चुराने लगे। मराठा आंदोलन भी इसी की देन है।
पिछले साल भी मराठा समुदाय के लोगों ने बड़ी संख्या में एकजुट होकर अपने लिए आरक्षण की मांग की थी। तब सरकार दबाव में आ गई थी। इस बार आंदोलन इस बात को लेकर उठा कि जब तक सरकार आरक्षण का मसला हल नहीं कर लेती, तब तक वह किसी भी तरह की भर्ती पर रोक लगा दे। दरअसल, कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र सरकार ने कहा था कि वह बड़े पैमाने पर नौकरियों के लिए आवेदन मंगाने वाली है। इसी को लेकर आंदोलन शुरू हुआ। जब भी आरक्षण को लेकर आंदोलन शुरू होता है, तो कुछ युवा भावना में बह कर, किसी तनाव के चलते या किसी के उकसावे में आकर खुदकुशी का प्रयास करते देखे जाते हैं। इस बार भी यही हुआ। एक युवक ने नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली। बताया जाता है कि दो युवकों ने जहर खाकर जान देने की कोशिश की। इससे आंदोलनकारी भड़क उठे और हिंसा पर उतारू हो गए। उन्होंने पुलिसकर्मियों पर पथराव किया और कुछ वाहनों को आग के हवाले कर दिया। अच्छी बात है कि मराठा क्रांति मोर्चा ने आंदोलन को विराम देने का फैसला किया, वरना और नुकसान हो सकता था।
यह सही है कि देश में युवाओं के सामने रोजगार का संकट है। सरकारी महकमों में नौकरियां सिकुड़ती गई हैं। नतीजतन, युवाओं में तनाव और अवसाद की स्थिति भी है। ऐसे में जब कोई राजनीतिक दल या नेता उन्हें नौकरियों में आरक्षण दिलाने का वादा करते हैं, तो युवाओं में उम्मीद जाग जाती है। मगर संवैधानिक बाध्यता के चलते एक सीमा से अधिक आरक्षण देना संभव नहीं है। यह बात राजनेता भी जानते हैं और आंदोलनकारी युवा भी। इस पर अदालतों में लंबी बहसें भी हो चुकी हैं। ऐसे में जब तक राजनीतिक दल अपने राजनीतिक लाभ के लिए आरक्षण की आग को हवा देना बंद नहीं करेंगे, तब तक यह आग रह-रह कर भड़कती रहेगी। जरूरी है कि रोजगार के नए अवसर पैदा करने की दिशा में विचार किया जाए, ताकि युवा आरक्षण के भरोसे रोजी की आस लगाए न बैठें।