संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की दरकार अनेक मौकों पर रेखांकित की जा चुकी है। अभी जी20 शिखर सम्मेलन के मंच से प्रधानमंत्री ने भी इसकी जरूरत पर बल दिया। इससे पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष ने कहा था कि सुरक्षा परिषद के स्वरूप में बदलाव किया जाना चाहिए, क्योंकि यह संस्था अब अपनी प्रासंगिकता लगभग खो चुकी है। यह बात उन्होंने रूस-यूक्रेन युद्ध के मद्देनजर कही थी। पिछले साल संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी कहा था कि इस संस्था को और समावेशी बनाया जाए, ताकि वह आज की दुनिया की जरूरतों को बेहतर तरीके से पूरा कर सके। सुरक्षा परिषद में स्थायी और अस्थायी, दोनों तरह के सदस्यों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए। इनमें अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देश भी शामिल हों।
कुछ देश शक्तिशाली की कतार में खड़े होकर हकीकत से आंखें नहीं चुरा सकते
भारत कई मौकों पर यह बात दोहरा चुका है, मगर इस बार चूंकि जी20 शिखर सम्मेलन के मंच से प्रधानमंत्री ने यह बात कही तो उसका अलग मतलब है। दरअसल, दुनिया का स्वरूप काफी तेजी से बदला है, इसमें केवल कुछ देश शक्तिशाली की कतार में खड़े होकर नए विश्व की वास्तविकताओं से आंखें नहीं चुरा सकते। जी20 इसका बड़ा उदाहरण है कि विकसित कहे जाने वाले राष्ट्रों को आखिरकार विकासशील या तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देशों को भी अपने साथ जोड़ना पड़ा।
सदस्य देशों की संख्या बढ़ी चार गुना, लेकिन मुख्य वार्ताकार वहीं पांच देश
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के गठन के बाद से अब तक इसके सदस्य देशों की संख्या चार गुना बढ़ चुकी है, मगर इसमें मुख्य वार्ताकार वही पांच देश हैं, जो शुरू में रखे गए थे। उन्हीं पांच देशों को स्थायी सदस्यता प्राप्त है और वे जिस मुद्दे पर जो राय बनाना चाहते हैं, जैसा फैसला करना चाहते हैं, कर लेते हैं। वे परस्पर अपने हितों में संतुलन बनाने का प्रयास करते देखे जाते हैं।
अगर किसी मुद्दे से उनमें से किसी के भी स्वार्थ पर आंच आती है, तो वह अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए उस मुद्दे पर आम राय बनने से रोक देता है। इस तरह कई मौकों पर देखा गया है कि जब कोई देश किसी अन्य देश पर युद्ध थोप देता और संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के नियमों का उल्लंघन करता देखा जाता है, तब सुरक्षा परिषद चुप्पी साधे रहती है। रूस की तरफ से यूक्रेन के खिलाफ छेड़े गए युद्ध में भी यह साफ-साफ देखा गया। रूस चूंकि खुद सुरक्षा परिषद का सदस्य है, इसलिए उसके खिलाफ सुरक्षा परिषद की कड़ाई की कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती।
सुरक्षा परिषद में हालांकि पंद्रह सदस्य होते हैं, जिनमें से पांच स्थायी हैं और दस अस्थायी होते हैं, जिन्हें दो-दो साल के लिए चुना जाता है। मगर जब भी कोई अहम फैसला करना होता है, तो स्थायी सदस्यों की ही सहमति मान्य होती है। वे पांच देश हैं अमेरिका, चीन, रूस, फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम। जबकि अब भारत, ब्राजील, जर्मनी, चौवन देशों का अफ्रीकी समूह आदि दुनिया के भू-राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य में ज्यादा अहमियत रखते हैं।
इन्हें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता न दिए जाने से वैश्विक मामलों में लिए जाने वाले निर्णयों में स्पष्ट असंतुलन नजर आता है। इसीलिए अब दुनिया के तमाम देश संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं में बदलाव की मांग उठाते देखे जाते हैं। मगर मुश्किल यह है कि इसके स्थायी सदस्य ऐसे किसी बदलाव को लेकर उदासीन ही देखे जाते हैं। इसमें सुधार की सूरत तभी बनेगी, जब इसके स्थायी सदस्य वैश्विक हितों को लेकर सचमुच संजीदा होंगे।