हाल में राजस्थान में हुए पंचायत चुनावों को लेकर संवैधानिक सवाल तो पहले से ही उठ रहे थे, अब इन चुनावों की एक और असलियत जो सामने आई है उसे उम्मीदवारी का घपला ही कहा जाएगा। खबर है कि अनेक उम्मीदवारों ने नामांकन के समय अपनी शैक्षणिक योग्यता के फर्जी प्रमाणपत्र जमा किए थे। यह खुलासा होने से इन चुनावों की वैधता पर सवालिया निशान लग गए हैं। राज्य के दौसा जिले में पुलिस ने एक निजी स्कूल के मालिक और उसके सहयोगी को जाली स्थानांतरण प्रमाण पत्र जारी करने के आरोप में गिरफ्तार किया है। दरअसल, इन चुनावों के दौरान और बाद में भी पुलिस के पास ऐसी शिकायतों की बाढ़ आ गई कि बहुत-से उम्मीदवारों ने नकली प्रमाणपत्र जमा किए हैं। इसके मद्देनजर पुलिस ने जांच शुरू की। दौसा में गिरफ्तार किए गए दोनों व्यक्तियों ने पुलिस को बताया कि उनके स्कूल ने दो सौ से ज्यादा फर्जी स्थानांतरण प्रमाण पत्र दिए थे, इनमें से कम से कम सत्ताईस लोग सरपंच का चुनाव जीत गए हैं। यह सिर्फ एक जिले के एक स्कूल का आंकड़ा है। पूछताछ में पुलिस को यह भी पता चला है कि यह गोरखधंधा पूरे राज्य में चला।

इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि शैक्षिक योग्यता संबंधी जाली कागजात जमा करके पंचायत और जिला परिषद के चुनाव जीतने वालों की तादाद कई गुना अधिक हो सकती है। फिर हारे हुए उम्मीदवारों का अनुमान करें, तो फर्जीवाड़े का दायरा हैरत में डाल देगा। चोरी-छिपे जाली स्थानांतरण पत्र जारी करने वाले स्कूलों पर पुलिस-कार्रवाई शुरू हुई है, लेकिन जो लोग इस तरह के कागजात जमा करके सरपंच बन गए हैं उनके खिलाफ क्या कार्रवाई होगी? और उन उम्मीदवारों के खिलाफ क्या कदम उठाए जाएंगे, जो चुनाव तो हार गए, मगर जिन्होंने फर्जी प्रमाणपत्रों के सहारे उम्मीदवारी का परचा दाखिल किया था? फिर अगर इतनी बड़ी संख्या में उम्मीदवारी में धांधली हुई हो, तो क्या चुनाव को वैध माना जाएगा? बहुत-से लोग उम्मीदवार नहीं हो सके, क्योंकि वे न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता की शर्त पूरी नहीं करते थे। इस घपले को उनके साथ हुए अन्याय के रूप में भी देखा जाना चाहिए। गौरतलब है कि राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने बीते दिसंबर में राजस्थान पंचायती राज (दूसरा संशोधन) अध्यादेश-2014 जारी करके पंचायत चुनावों के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता की शर्त तय कर दी। सरपंच पद (सामान्य वर्ग) के लिए आठवीं कक्षा, इसी पद के लिए अधिसूचित क्षेत्र में पांचवीं कक्षा और जिला परिषद की सदस्यता के लिए दसवीं कक्षा की पात्रता अनिवार्य कर दी गई।

लोकतांत्रिक और संवैधानिक नजरिए से यह कसौटी निहायत बेतुकी है, और इसीलिए कई न्यायविदों समेत बहुत-से बुद्धिजीवियों, राजनीतिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस पर सख्त एतराज जताया था। उनकी आलोचना वाजिब थी, इसलिए कि जब लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता की शर्त नहीं रखी गई है, तो राजस्थान के पंचायत चुनाव में यह क्यों? राज्य के बहुत-से ग्रामीण निरक्षर हैं, आठवीं और दसवीं तक पढ़ाई कर चुके लोगों की तादाद ग्रामीण राजस्थान में और भी कम है। फिर, महिलाओं और अनुसूचित जाति-जनजाति में निर्धारित न्यूनतम शैक्षिक योग्यता का अनुपात और भी कम मिलेगा। ऐसे में, अध्यादेश में किया गया प्रावधान बहुत-से लोगों खासकर कमजोर तबकों को पंचायती राज में प्रतिनिधित्व करने से रोकने का ही हथियार है। मुख्यमंत्री ने नए प्रावधान पर दूसरे लोगों की बात तो दूर, अपने विधायकों की भी राय जानने की जरूरत नहीं समझी, और उसे अध्यादेश के माध्यम से लागू कर दिया। यह चुनाव संवैधानिक सवालों के घेरे में तो था ही, साफ-सुथरा भी नहीं रह पाया।

 

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