भारतीय रेलवे देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक परिवहन सेवा है। करोड़ों लोग रोजाना इससे सफर करते हैं। पर विशालता के बरक्स मुसाफिरों की सुरक्षा के लिहाज से देखें तो रेलवे का कामकाज निराशाजनक ही कहा जाएगा। एक ट्रेन हादसे की याद धुंधली भी नहीं पड़ पाती कि दूसरा हादसा हो जाता है। ताजा वाकया जनता एक्सप्रेस का है। देहरादून से वाराणसी जा रही यह ट्रेन बीते शुक्रवार की सुबह लखनऊ से पचास किलोमीटर दूर बछरावां के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गई।

इसके चलते तीस से ज्यादा लोग मारे गए और करीब डेढ़ सौ लोग घायल हो गए। खबरों के मुताबिक ट्रेन का ब्रेक काम नहीं कर रहा था, जिसकी वजह से ड्राइवर का ट्रेन पर नियंत्रण नहीं रहा। ट्रेन सिग्नल पार कर गई। इंजन के पीछे की सामान्य श्रेणी की बोगी पिचक कर एक तिहाई रह गई। बाद की बोगी उसके ऊपर चढ़ गई। शुरुआती जांच के आधार पर रेल प्रशासन ने ड्राइवर को दोषी ठहराया है।

पर रेल प्रशासन अपनी जवाबदेही से पल्ला नहीं झाड़ सकता। देहरादून से ट्रेन के चलने से पहले क्या ब्रेक समेत सभी तकनीकी पहलुओं की जांच की गई थी? बछरावां से पहले कई बड़े स्टेशन पड़े। ब्रेक की खामी कहीं पकड़ में क्यों नहीं आई? क्या सिर्फ ड्राइवर जिम्मेवार है, या रेलवे का तकनीकी और प्रशासनिक अमला भी दोषी है? और तो और, हादसे के बाद राहत-कार्यों में भी प्रशासनिक ढिलाई नजर आई। अलबत्ता स्थानीय गांववासियों ने राहत के काम में तत्परता से सहयोग दिया।

जैसा कि अमूमन हर बार होता है, इस हादसे की भी जांच के आदेश दिए गए हैं। पर सवाल है कि पहले की दुर्घटनाओं की जांच से रेलवे ने क्या सबक लिया है? अधिकतर ट्रेन दुर्घटनाओं के कारण जाने-पहचाने हैं। कभी सिग्नल की खराबी, कभी ट्रेन के सिग्नल पार कर जाने, कभी दो रेलगाड़ियों के बीच टक्कर, कभी किसी बोगी में शॉर्ट सर्किट से आग लग जाने आदि कारणों का पता तो तुरंत चल जाता है, पर यह सब न हो यह सुनिश्चित करने के लिए रेलवे ने क्या किया है?

तमाम जांच-रिपोर्टों का क्या हासिल रहा है? ब्रेक की नाकामी और ट्रेन का सिग्नल पार कर जाना भी अपवाद नहीं है। अप्रैल 2011 से अगस्त 2014 के बीच ऐसे दो सौ उनतालीस मामले दर्ज हुए, यानी औसतन हर महीने करीब छह। बेशक ऐसी हर गड़बड़ी हादसे में नहीं बदलती, पर रेलवे की अपनी शब्दावली में इसे दुर्घटना ही माना जाता है। फिर भी रेल प्रशासन ऐसी गड़बड़ी न होने देने के लिए चौकस नहीं दिखता। कई दुर्घटनाएं रेलवे क्रॉसिंगों पर चौकीदार की तैनाती न होने से भी होती हैं। इस बार के रेल बजट में क्रॉसिंगों को सुरक्षित बनाने का बड़ा कदम उठाया गया है। पर यह रेल-सुरक्षा का एक छोटा-सा अंश भर है।

जनता एक्सप्रेस का हादसा बताता है कि तकनाकी दुरुस्ती और कर्मचारियों के कर्तव्य-पालन, दोनों बड़ी कसौटियों पर रेलवे का कामकाज अब भी निहायत असंतोषजनक है। रेलमंत्री प्रभु जोशी ने मुसाफिरों की सुरक्षा के मद््देनजर पांच साल की योजना पेश की है। पर यह हर बजट में होता आया है। सवाल है कि दुर्घटनाओं के जाने-पहचाने कारणों को दूर करने के लिए रेलवे को कितना वक्त लगेगा? हमारे नीति नियंता भारतीय रेल सेवा को विश्वस्तरीय बनाने का दम भरते नहीं थकते। और अब तो बुलेट ट्रेन का सपना दिखाया जा रहा है।

पर ये बातें कंपनियों, बाहरी निवेशकों, ठेकेदारों को भले रास आएं, आम मुसाफिरों की दिलचस्पी इनमें नहीं हो सकती। उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता सुरक्षित रेल-यात्रा की है। फिर, ट्रेनों के समय से परिचालन और साफ-सफाई आदि की। रेल-प्रशासन को इसी दिशा में अधिक संवेदनशील बनाने की जरूरत है, पर इस तकाजे को अभी तक पर्याप्त अहमियत नहीं दी गई है।

 

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