भारत और चीन के बीच एक बार फिर सीमा विवाद को लेकर बातचीत हुई। इससे कोई ठोस नतीजा निकलने की उम्मीद पहले से नहीं थी। वही हुआ। संतोष की बात सिर्फ यह है कि दोनों तरफ के विशेष प्रतिनिधियों, अजीत डोभाल और यांग जिएची, की बातचीत सौहार्दपूर्ण माहौल में हुई, और इस वार्ता से पहले चीन की तरफ से दबाव बनाने का कोई वाकया नहीं हुआ, जैसा कि पहले कई बार देखने में आया है।

गौरतलब है कि पिछले साल सितंबर में जब चीन के राष्ट्रपति भारत के मेहमान थे, उसी समय चीनी सैनिकों ने लद््दाख के चुमार सेक्टर में अतिक्रमण कर रखा था। दो महीने बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा प्रस्तावित है। पिछले महीने विदेशमंत्री सुषमा स्वराज चीन गई थीं।

उनके इस दौरे को मोदी की संभावित चीन-यात्रा की तैयारी से जोड़ कर देखा गया। तब उन्होंने सीमा विवाद को भावी पीढ़ियों के लिए न छोड़ने की अपील करते हुए लीक से हट कर उसका समाधान निकालने पर जोर दिया था। मगर डोभाल और जिएची की नई दिल्ली में हुई बैठक में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे लीक से हट कर कहा जा सके।

सरहद को लेकर दोनों देशों के बीच मतभेद का सिलसिला बहुत पुराना है। इसे दूर करने के प्रयास भी दशकों से होते रहे हैं। पर एक सैद्धांतिक रूपरेखा तय करने से ज्यादा कुछ नहीं हो पाया है।

यह सही है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर दोनों पक्षों की समझ भिन्न है, खासकर लद्दाख क्षेत्र को लेकर, जिसके तहत अक्साइ चिन आता है। वर्ष 2003 में तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की चीन यात्रा के दौरान सीमा विवाद के हल के लिए दोनों तरफ से विशेष प्रतिनिधि नियुक्त करने का फैसला हुआ था।

फिर अप्रैल 2005 में एक सैद्धांतिक रूपरेखा तय हुई, जिसमें यह बात भी शामिल थी कि समाधान की प्रक्रिया में स्थानीय आबादी के हितों का खयाल रखा जाएगा। पर अरुणाचल के मामले में चीन इस पहलू को नजरअंदाज कर देता है। उसके इस रुख में कोई बदलाव नहीं आया है।

फिर, वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर दोनों पक्षों के आग्रह जस के तस हैं। ऐसे में मोदी की चीन यात्रा के दौरान भी सरहद के मसले पर कोई नई सहमति बन पाएगी, इसकी उम्मीद फिलहाल नहीं दिखती। सीमा विवाद के बावजूद चीन से भारत का व्यापार काफी बढ़ा है और चीन उसका सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार हो गया है। लेकिन चीन से व्यापार में यह बढ़ोतरी काफी असंतुलित है और यह भारत के व्यापार घाटे का एक बड़ा कारण है।

भारत और चीन का व्यापार 2013-14 में पैंसठ अरब डॉलर का था, पर भारत के हिस्से में छत्तीस अरब डॉलर के घाटे के साथ। इस स्थिति ने भारत को चिंतित कर रखा है।

दवा और सूचना प्रौद्योगिकी आदि के क्षेत्र में चीन को निर्यात बढ़ा कर भारत इस खाई को पाटने की उम्मीद करता रहा है, पर भारतीय कंपनियों को चीन के बाजार में अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए कई तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है। भारत के बार-बार कहने के बावजूद चीन ने ये रुकावटें दूर नहीं की हैं।

इससे हताश भारतीय वाणिज्य मंत्रालय सोच रहा है कि क्यों न चीन से आयात के मापदंड कड़े कर दिए जाएं। जब भी भारत ने ऐसी चेतावनी दी है, चीन फौरन एक सहमति-पत्र की पेशकश कर देता है। मगर उस सहमति को संजीदगी से क्रियान्वित नहीं करता और फिर आयात-निर्यात की खाई और बढ़ी हुई दिखती है। अगर चीन का यही रवैया रहा, और सीमा विवाद हल करने की दिशा में भी कोई प्रगति नहीं हुई, तो मोदी की चीन यात्रा की उपलब्धि क्या होगी!

 

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