गर्मी बढ़ने के साथ ही देश के ज्यादातर राज्यों में बिजली संकट भी गहरा गया है। पिछले कई दिनों से जो हालात बने हुए हैं, वे स्थिति की गंभीरता बताने के लिए काफी हैं। इस वक्त ज्यादातर राज्य पर्याप्त बिजली नहीं मिलने की शिकायत कर रहे हैं। वैसे भी गर्मी के मौसम में बिजली की मांग बढ़ जाती है। लेकिन विडंबना यह है कि सब जानते-बूझते भी सरकारें समय रहते ऐसे मुक्कमल बंदोबस्त नहीं करतीं जिससे बिजली संकट खड़ा न हो।

आखिर ऐसी नौबत क्यों आने दी जाती है कि दस-दस घंटे की बिजली कटौती करनी पड़ जाए। जब पता है कि गर्मी के दिनों में बिजली की मांग बढ़ेगी तो पहले ही से इसके लिए तैयारियां क्यों नहीं की जातीं? ऐसा भी नहीं कि पहली बार बिजली की कमी का ऐसा संकट खड़ा हुआ है। लेकिन दुख की बात यह है कि हमने पूर्व के संकटों से कोई सबक नहीं लिया। इसी का नतीजा है कि इस बार फिर देश के ज्यादातर हिस्से अंधेरे में डूब रहे हैं और लोगों के पसीने छूट रहे हैं।

गौरतलब है कि ज्यादातर बिजलीघरों के पास पर्याप्त कोयला नहीं है। हालात कितने नाजुक हैं, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि साठ फीसद बिजली संयंत्रों के पास पच्चीस फीसद से भी कम कोयला बचा है। हालांकि कोयला मंत्री ने बिजली संयंत्रों के पास दस दिन का कोयला होने का दावा किया है। पर हैरत की बात यह है कि एक तरफ तो बिजली संकट के लिए अब तक कोयला उत्पादन में कमी की बात कही जाती रही है, जबकि दूसरी ओर देश में कोयले की कमी नहीं होने का दावा भी सुनने को मिलता रहा है।

इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि फिर बिजली संकट क्यों खड़ा हो गया? आंकड़े बताते हैं कि कोयला उत्पादक कंपनियों के पास करीब साढ़े छह करोड़ टन कोयले का पर्याप्त भंडार है और इस बार अप्रैल में कोयला उत्पादन पिछले साल के मुकाबले सत्ताईस फीसद बढ़ा है। ऐसे में अगर बिजली संयंत्रों को समय पर कोयला नहीं मिल पा रहा है तो इसका मतलब है कि समस्या का छोर कहीं और भी होगा।

बिजली संकट का मुद्दा कोयले की ढुलाई से भी जुड़ा है। कोयला कंपनियों की शिकायत रही है कि राज्य उन्हें ढुलाई का भाड़ा नहीं देते और राज्यों पर यह रकम साढ़े पंद्रह हजार करोड़ रुपए से ज्यादा बकाया है। अगर ऐसा है, तो साफ है कि यह केंद्र, राज्यों और कोयला उत्पादक कंपनियों के बीच का मसला है। पर यह कोई ऐसा जटिल मसला भी नहीं है जो सुलझाया न जा सके। लेकिन सिर्फ ढुलाई के भाड़े को लेकर समस्या बड़ी होती जा रही है तो यह गंभीर बात है।

हालांकि बिजलीघरों तक कोयला पहुंचाने के लिए रेलवे ने कमर कसी है, बड़ी संख्या में मालगाड़ियां लगाई हैं और कुछ दिन के लिए सैकड़ों यात्री गाड़ियों के फेरे भी बंद कर दिए हैं, ताकि मालगाड़ियों के लिए रास्ता साफ रहे। अगर रेलवे ऐसी ही चुस्ती पहले दिखा देता तो शायद बिजलीघर एक दिन या एक हफ्ते का कोयला बचा होने का रोना न रोते। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बिजली की कमी से कहीं ज्यादा बड़ा संकट कोयला, रेल और बिजली मंत्रालय में तालमेल की कमी का भी दिखता है। वरना जब कंपनियों के पास कोयला भी पर्याप्त है, रेलवे के पास भरपूर संसाधन और क्षमता है और बिजली घर भी उत्पादन में पीछे नहीं हैं, तो फिर क्यों देश अंधेरे में डूबने को मजबूर है?