सीरिया के लोगों के लिए यह खुशखबरी हो सकती है कि पूर्वी सीरिया के बगहोज क्षेत्र जो इस्लामिक स्टेट (आइएस) का अंतिम गढ़ था, उसे भी मुक्त करा लिया गया है। खुद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह दावा किया है। सीरिया के एक बड़े हिस्से के लोगों ने लंबे समय तक आइएस के क्रूर शासन को देखा। लेकिन अब सीरिया आइएस-मुक्त है। अगर इराक और सीरिया दोनों देशों के आइएस के कब्जे वाले इलाकों के क्षेत्रफल को देखा जाए तो यह ग्रेट ब्रिटेन के बराबर बैठता है। अमेरिका की वास्तविक मंशा सीरिया से राष्ट्रपति बशर अल असद की सरकार को हटाने की थी। लेकिन वहां पर रूस आड़े आ गया। अब अमेरिका आइएस के खात्मे का दावा कर ससम्मान सीरिया से बाहर निकलना चाहता है। हालांकि आइएस को सीरिया में खत्म किए जाने के दावे पर को लेकर तमाम सवाल हैं। उसके संभावित खतरे को खुद अमेरिकी स्वीकार कर रहे हैं। अमेरिकी सेना के मध्य कमान के प्रमुख जोसेफ वोटल ने भी भविष्य के इन खतरों को स्वीकार किया है। जोसेफ के अनुसार आइएस के गायब हुए कमांडर और लड़ाके कभी भी फिर से माहौल खराब कर सकते हैं। इनके पास अभी भी संसाधन हैं, लड़ाके हैं। जोसेफ की आशंका में दम है। अमेरिकी सेना आइएस की ताकत को समझती है। शुरुआती दौर में आइएस को अमेरिकी संरक्षण मिला था, अमेरिका इस फिराक में था कि आइएस के लड़ाके असद सरकार को उखाड़ फेंकेंगे। अभी भी यही सवाल उठाए जाते हैं कि आइएस के पास अमेरिकी और इजरायली हथियार कहां से आए? आइएस के प्रमुख अबू बकर अल बगदादी अमेरिकी सैनिकों के कब्जे में रहा। तब फिर वह आइएस का मुखिया कैसे बन गया?

सीरिया में आइएस राज खत्म किए जाने को लेकर दावे जरूर हैं। लेकिन अभी भी सच्चाई यह है कि हजारों लड़ाके सीरिया और इराक के दूरदराज इलाकों में चुपचाप बैठ गए हैं। चूंकि इराक में भी आइएस के खात्मे का दावा दिसंबर 2017 में किया गया था। लेकिन दस महीने में ही इराक में एक हजार से ज्यादा आतंकी हमले इराके में हुए। यही खतरा सीरिया में है। यहां से बहुत सारे लड़ाके भाग कर एशिया के कुछ देशों में भी पहुंच गए हैं। अफगानिस्तान और पाकिस्तान में आइएस के कमांडर मौजूद हैं। इसकी खबर रूस, अमेरिका और चीन को लंबे समय से है। अफगानिस्तान में आइएस के खतरे को भांपते हुए रूस ने तालिबान से बातचीत शुरू की थी और पाकिस्तान, चीन सारे देशों को तालिबान से बातचीत बढ़ाने को कहा था। अफगानिस्तान में आइएस के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए अमेरिका ने तालिबान से बातचीत तेज की। इस समय आइएस की खुरासान शाखा अफगानिस्तान में खासी सक्रिय है। पिछले दो-तीन साल में खुरासान शाखा ने अफगानिस्तान में खासा प्रभाव बढ़ाया है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय अफगानिस्तान में आइएस के ढाई हजार लड़ाके मौजूद हैं। पूर्वी अफगानिस्तान के ननगहार, कुनार सहित कुछ राज्यों में इनकी सक्रियात खासी है। काबुल तक में ये सक्रिय हैं। अफगान तालिबान के लड़ाके और कुछ कमांडर भी आइएस के साथ जुड़ गए। इन्हें पैसे के लोभ ने आइएस की तरफ मोड़ा। सीरिया और इराक के कई इलाकों के संसाधनों के कब्जे के बाद आइएस के पास खासा पैसा जमा हो गया। इस पैसे का इस्तेमाल आइएस अफगानिस्तान, फिलिपीन से लेकर पश्चिमी अफ्रीका तक कर रहा है।
अफगानिस्तान में आइएस के बढ़ते प्रभाव का अंदाजा बम धमाकों से लगाया जा सकता है। 2018 मे आइएस ने अफगानिस्तान में कई आत्ममघाती हमले किए। इसमें ढाई सौ के करीब लोग मारे गए। यही नहीं अफगानिस्तान का पड़ोसी शिया ईरान भी आइएस के हमले का शिकार हुआ है। सितंबर 2018 मे आइएस ने ईरान में एक सैन्य परेड पर हमला कर तीस ईरानी सैनिकों को मार डाला था। उधर पूर्वी एशिया के दो देश- इंडोनेशिया और फिलिपीन भी आइएस के शिकार हैं। आइएस यहां खासा सक्रिय है। वर्तमान में फिलिपीन में आइएस की गतिविधियां काफी तेज है। फिलिपीन में आइएस से संबंधित अबु सयाफ ग्रुप की सक्रियता ने पूर्वी एशिया में चिंता बढ़ाई है।

भारत में आइएस अपनी गतिविधियां फैलाने में सफल नहीं हो पाया है। भारत जैसे देश से आइएस सीरिया, इराक आदि देशों में जेहाद के लिए ज्यादा कैडर भी नहीं जुटा पाया। हालांकि कुछ युवा आइएस की विचारधारा से प्रभावित हो सीरिया, इराक और अफगानिस्तान के लिए गए, लेकिन इनकी संख्या सौ का आंकड़ा भी नहीं पार कर पाई। लेकिन भारत के पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश में आइएस की गतिविधियां बढ़ी हैं, इसमें कोई शक नही है। इससे भारत की चिंता बढ़नी लाजिमी है। जुलाई 2016 में बांग्लादेश की राजधानी ढाका के एक रेस्तरां में आइएस के हमले ने पूरी दुनिया को हिला दिया था। इस हमले में बीस लोग मारे गए थे, जिसमें एक भारतीय महिला भी थी। इस हमले ने साबित किया था कि आइएस बांग्लादेश में पैठ जमा चुका है। हालांकि बांग्लादेश की सरकार ने कट्टरपंथ से डट कर मुकाबला किया है। यहां कट्टरपंथियों की कमर भी तोड़ी गई है। लेकिन ढाका में कैफे के अंदर आतंकी हमले के बाद भारत सतर्क हो गया था। क्योंकि आइएस के आॅनलाइन जेहाद से देश के कुछ राज्यों के युवा आइएस से प्रभावित हो सीरिया, इराक और अफगानिस्तान तक पहुंच गए थे। कश्मीर में कई बार आइएस के झंडे लहराए गए। भारत की चिंता इसलिए भी बढ़ी कि अभी तक भारत को पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद से निपटना पड़ रहा है। लेकिन आइएस के प्रभाव अगर बढ़ा तो भारत की मुश्किलें और बढ़ेंगी। हालांकि भारतीय सुरक्षा तंत्र फिलहाल आइएस की गतिविधियों को नियंत्रण करने में सफल रहा है। भारत की चिंता यह भी है कि पड़ोसी देश म्यांमा की रोहिंग्या नीति पूर्वी एशिया में आइएस को घुसपैठ के लिए जमीन तैयार कर सकती है।

सीरिया में आइएस का अंत करने का दावा तो किया गया है, इसका मुखिया बगदादी कहां है, इसकी जानकारी सुरक्षा एजेंसियों को नहीं है। पश्चिम एशिया में महाशक्तियों की नीतियों ने हमेशा से स्थानीय लोगों की समस्या बढ़ाई है। बशर अल असद की सरकार को खत्म कर अमेरिका सीरिया की गद्दी पर अपना मुखौटा बिठाना चाहता था, ताकि इराक से सीरिया के रास्ते भूमध्यसागर तक जाने वाले आर्थिक गलियारे पर अमेरिकी प्रभाव स्थापित हो जाए। इसलिए सीरिया में कई असद विरोधी आतंकी गुटों को अमेरिका हवा देता रहा। आइएस ने भी इसका फायदा उठाया। बाद में आइएस इतना ज्यादा मजबूत हो गया कि पूरे इलाके में अमेरिका और रूस के लिए भी चुनौती बन गया। आज अफगानिस्तान समेत मध्य एशिया के कई देशों में आइएस की बढती गतिविधियों से चीन, रूस भी परेशान है। तभी अफगान तालिबान को रूस ने अपने प्रयास से शांति वार्ता की मेज पर लाने की कोशिश की। मास्को में तालिबान के साथ बैठक आयोजित की गई। अमेरिका भी आइएस के आसन्न खतरे को देख रहा है। तभी तालिबान से कई दौर की शांति वार्ता हो चुकी है।
आइएस के बढ़ते प्रभाव से चीन चिंतित है। पाकिस्तान और मध्य एशिया के देशों में चीन सौ अरब डालर से ज्यादा का निवेश कर चुका है। इसलिए आइएस की मजबूती चीन के लिए खतरा बन सकती है। आइएस की मजबूती से पश्चिमी चीन में सक्रिय उइगुर अलगाववादियों का मनोबल बढ़ेगा। इसलिए चीन किसी कीमत पर आइएस की मजबूती नहीं चाहेगा। दरअसल आइएस चीन के प्रस्तावित बेल्ट एंड रोड पहल के लिए भारी खतरा है।