पश्चिम बंगाल में राज्य के सात विश्वविद्यालयों में अंतरिम कुलपतियों की नियुक्ति के फैसले के बाद एक बार फिर राज्यपाल और सरकार के बीच विवाद की स्थितियां दिखने लगी हैं। हालांकि वहां यह स्थिति नई नहीं है। कुलपतियों की नियुक्ति सहित कई अन्य मुद्दों पर एक तरह से सरकार और राज्यपाल के रूप में दो पक्ष बन गए हैं और दोनों के बीच प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खींचतान चलती रहती है।
विडंबना यह है कि नियमों के मुताबिक अंतिम रूप से किसी एक व्यवस्था को अमल में आना ही है, लेकिन इस टकराव का खमियाजा किसी न किसी रूप में आखिर आम जनता को उठाना पड़ रहा है। यों वहां कुलपतियों की नियुक्ति के मसले पर अधिकार से जुड़ा विवाद पिछले कई महीने से चल रहा है, लेकिन रविवार को राज्यपाल ने जब सात विश्वविद्यालयों के लिए अंतरिम कुलपतियों की नियुक्ति को हरी झंडी दी, उसके बाद राज्य सरकार की ओर से तीखी प्रतिक्रिया उभरी। वहां के शिक्षा मंत्री ने राज्यपाल पर ‘तानाशाहीपूर्ण’ तरीके से काम करने का दावा करते हुए यह भी आरोप लगाया कि इस कदम से विश्वविद्यालय की कार्यप्रणाली ‘नष्ट’ हो सकती है।
दरअसल, कुलाधिपति के तौर पर राज्यपाल और राज्य सरकार की विश्वविद्यालयों में भूमिका से संबंधित एक विधेयक विधानसभा में पारित हो चुका है। शिक्षा मंत्री की ओर से इसी बुनियाद पर राज्यपाल के कदम को नियमों का उल्लंघन बताया जा रहा है। दूसरी ओर, ताजा मामले पर राज्यपाल के पक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि कुलपतियों की अनुपस्थिति में विश्वविद्यालयों में अनिश्चितता का माहौल बन सकता है, इसलिए यह कदम सही है।
हालांकि इस मसले पर पूर्व कुलपतियों सहित शिक्षाविदों के एक समूह ने भी राज्यपाल द्वारा कई अंतरिम कुलपतियों की नियुक्ति पर सवाल उठाया है। वहीं राज्य सरकार का दावा है कि वह इस मुद्दे पर राज्यपाल के साथ चर्चा करके मामले का हल निकालना चाहती है। लेकिन अगर सब कुछ इतना ही सहज है, तब वे कौन-से बिंदु हैं, जिसकी वजह से टकराव हो रहा है?
करीब तीन महीने पहले भी कुलपतियों की नियुक्ति के मसले पर राज्य सरकार और राज्यपाल एक दूसरे के आमने-सामने आ गए थे। सवाल है कि अगर कुलपतियों की नियुक्ति के मामले में नियमों की कसौटी पर स्थितियां बिल्कुल स्पष्ट हैं, तब क्या राज्यपाल उसकी अनदेखी करके इस मामले में फैसले ले रहे हैं! अगर ऐसा नहीं है तो क्या सरकार की आपत्ति नाहक ही किसी विवाद को तूल देने की कोशिश है?
पश्चिम बंगाल में राज्य सचिवालय और राज्यपाल के बीच अधिकार क्षेत्र को लेकर टकराव लंबे समय से जारी है। मौजूदा खींचतान से पहले वहां के पूर्व राज्यपाल जगदीप धनखड़ के दौर में विवाद काफी गहरा हो गया था। खासतौर पर विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति के मसले पर यह तनाव इस कदर बढ़ा कि राज्य सरकार ने विधानसभा में एक विधेयक पारित कर राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को अधिकार सौंपने का फैसला किया था।
उसके बाद भी इस मामले में दोनों पक्षों में लगातार जद्दोजहद कायम है। लेकिन इस बीच यह ध्यान रखने की जरूरत है कि अधिकारों की सीमा और खींचतान के बीच राज्य में उच्च शिक्षा की तस्वीर बुरी तरह प्रभावित हो रही है। विचार इस पहलू पर किया जाना चाहिए कि राज्य के विश्वविद्यालयों में कितने पूर्णकालिक कुलपति हैं।
इसकी वजह से प्रशासनिक और वित्तीय स्तर पर कैसे गतिरोध खड़े हो रहे हैं और कालेजों में सामान्य कामकाज और पठन-पाठन पर इसका क्या असर पड़ रहा है। मगर समस्या का कोई ठोस हल निकालने की कोशिश करने के बजाय राज्य सरकार और राज्यपाल आमने-सामने दिख रहे हैं। सवाल है कि इस टकराव का हासिल क्या है!