अदालतें इंतजार करती रहती हैं कि कब सही तथ्य उनके समक्ष आए और वे अपना फैसला सुनाएं, मगर वे तथ्य जांच अधिकारियों की सुस्ती से कहीं ठहर से जाते हैं। फिर, अदालतों पर मुकदमों का बोझ बढ़ते जाने और उनमें रिक्तियां न भरी जाने की वजह से भी न्याय की रफ्तार थम जाती है।

बहुत सारे लोग विचाराधीन कैदी के रूप में अपने गुनाह की तय सजा से कहीं अधिक सजा भुगतने को विवश होते हैं। अदालतों की यह सच्चाई उजागर है। मगर केंद्रीय कर्मचारियों की भर्ती और सेवा से जुड़ी शिकायतों का निपटारा भी जब दस साल से अधिक लटके रह जाते हैं, तो इसे क्या कहा जा सकता है।

एक संसदीय समिति ने केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण यानी कैट से कहा है कि वह दस साल से अधिक समय से लंबित मामलों, वरिष्ठ नागरिकों और पेंशन से जुड़ी शिकायतों का निपटारा शीघ्र करे। गौरतलब है कि अस्सी हजार पांच सौ पैंतालीस मामले कैट के फैसले का इंतजार कर रहे हैं। इनमें तेरह सौ पचास मामले दस साल से अधिक समय से लटके हुए हैं। करीब पौने चार हजार मामले पेंशन से संबंधित हैं।

केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण का गठन विशेष अधिनियम के तहत किया गया था, ताकि संघ के प्रशासनिक अधिकारियों को अपनी सेवा से संबंधित शिकायतों को लेकर अदालतों की खाक न छाननी पड़े। नियम के मुताबिक उनकी शिकायतों का निपटारा छह महीने के भीतर हो जाना चाहिए। यह नियम इसलिए बनाया गया था कि प्रशासनिक अधिकारियों को लंबे समय तक उनके कामकाज से दूर न रखा जा सके और जो दोषी हैं, उनके खिलाफ शीघ्र कार्रवाई की जा सके। इस अधिकरण को भी उच्च न्यायालयों की तरह का अधिकार प्राप्त है।

मगर हैरानी की बात है कि यह अधिकरण भी सामान्य अदालतों की तरह ही मामलों को लटकाए रखने लगा। नहीं तो यह समझना मुश्किल है कि प्रशासनिक अधिकारियों से जुड़ी शिकायतों पर निर्णय लेने में इतनी देर क्यों होनी चाहिए। ऐसे मामलों में ज्यादातर विभागीय जांच की जरूरत पड़ती है। जाहिर है, उनमें अधिकतर अनियमितता से जुड़े मामले होंगे।

नियम के अनुसार जब तक किसी अधिकारी की अनियमितता से जुड़े मामले का निपटारा नहीं हो जाता, तब तक उसकी पेंशन आदि सुविधाओं को रोक कर रखा जाता है। मगर जिन लोगों की पेंशन दस साल से लटकी हुई है, उन्हें अपना गुजर-बसर, स्वास्थ्य आदि संबंधी खर्चे किस तरह जुटाने पड़ते होंगे, अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसे लोगों के मामले टालते जाने की कोई तुक समझ नहीं आती।

दरअसल, सरकारी कामकाज में सुस्ती रिवायत-सी बन गई है। इसके चलते सामान्य कामकाज भी हफ्तों में पूरे हो पाते हैं। जहां तक न्यायाधिकरणों की बात है, अगर उसके कामकाज पर प्रश्नचिह्न न भी लगाएं, तो यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि क्यों अस्सी हजार से अधिक मामले अभी तक लटके हुए हैं।

इसकी एक वजह यह भी रही है कि सरकार न्यायाधिकरणों में नियुक्तियों को लेकर वैसे ही हीले-हवाले देती देखी जाती है, जैसे न्यायालयों की नियुक्तियों को लेकर देती रहती है। छिपी बात नहीं है कि बहुत सारे न्यायाधिकरणों में लंबे समय से रिक्तियां भरी नहीं गई हैं। अगर सचमुच न्यायाधिकरणों के कामकाज में तेजी लानी है, तो उनमें खाली पड़ी जगहों को भरने में भी गंभीरता दिखानी होगी। नहीं तो उनमें लंबित मामलों के चलते लोग नाहक परेशानियां झेलने को मजबूर होंगे।