संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दो दिन संविधान और इसके निर्माण में बाबासाहब भीमराव आंबेडकर के योगदान पर चर्चा के लिए रखे गए थे। इस मुद्दे पर सदन में जो बहस चली उससे नहीं लगता कि हमारे राजनीतिक दल संवैधानिक मूल्यों पर खुद को कसने के लिए तैयार हैं। एक-दूसरे को निशाना बनाने के लिए आंबेडकर की दुहाई देने और संविधान के रक्षक होने की दावेदारी की कोशिशें ही इस बहस में छाई रहीं। गृहमंत्री राजनाथ सिंह का यह कहना अपनी जगह सही हो सकता है कि सेक्युलरिज्म शब्द का बहुत दुरुपयोग हुआ है।
पर यह बात तो धर्म, सामाजिक न्याय, राष्ट्रवाद और देशभक्ति जैसे शब्दों की बाबत भी कही जा सकती है। इसलिए समस्या सेक्युलरिज्म शब्द के दुरुपयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि इतनी व्यापक है कि आज की राजनीति का शायद ही कोई कोना उसके दायरे में आने से बच सके। अगर संविधान की दिशा में आगे बढ़ने और उसके मूल्यों को लेकर हम संजीदा नहीं हैं, तो आंबेडकर का नाम जपने और संविधान पर बहस करने से क्या हासिल होगा? हमारे संविधान का पहला बुनियादी मूल्य है कि वह जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर किसी तरह के भेदभाव की इजाजत नहीं देता। दूसरी खास बात यह है कि नागरिक अधिकार हमारे संविधान के मूल ढांचे में निहित हैं।
तीसरी बड़ी विशेषता यह है कि हमारे संविधान ने न्याय और मानवीय गरिमा के साथ जीने की सहूलियतें मुहैया कराना राज्य का दायित्व माना है। ये संवैधानिक मूल्य स्वाधीनता आंदोलन के दौरान विकसित हुई आम सहमति से ही उपजे थे। संविधान के हिसाब से देश के लिए कौन-सी दिशा वांछनीय है इसे लेकर गलतफहमी की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। लेकिन जहां तथ्यों पर परदा डालने और दुष्प्रचार पर बहुत जोर हो, वहां कईबार भटकाव की भी स्थिति आ जाती है।
बहरहाल, अगर संविधान की बात ईमानदारी और जिम्मेदारी के साथ करनी हो, तो कुछ सवाल उठाने चाहिए। संविधान के अनुच्छेद इक्कीस ने जीने के अधिकार का भरोसा दिलाया है। पर करोड़ों लोग भूखे या अधपेट रहने को विवश हैं। चालीस से पैंतालीस फीसद बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। हर साल लाखों लोग ऐसी बीमारियों से मर जाते हैं जिनका आसानी से इलाज संभव है। अगर हमारी सरकारें और राजनीतिक पार्टियां संविधान को लेकर पर्याप्त संजीदा होतीं, तो क्या आजादी के अड़सठ साल बाद भी ऐसी हालत रहती? न्याय मिलने की स्थिति यह है कि देश भर की अदालतों में लंबित मामलों की तादाद तीन करोड़ से ऊपर पहुंच चुकी है। मुकदमे बरसों-बरस घिसटते रहते हैं।
मामलों के तीव्र निपटारे की कोई व्यवस्था भले न हो पाई हो, मगर संसद से पारित कानून को खारिज कर कोलेजियम प्रणाली जरूर बहाल हो गई, जिस प्रणाली का जिक्र संविधान में नहीं था। हमारी संसदीय व्यवस्था के वाहक राजनीतिक दलों की क्या दशा है? परिवार की जागीर बन कर रह जाने वाली पार्टियों की तादाद बढ़ती गई है। वे खुद में अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति की हों तो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में परिष्कार का माध्यम कैसे हो सकती हैं? हर चुनाव के बाद विधायिका में संदिग्ध पृष्ठभूमि के लोगों की संख्या और बढ़ी हुई दिखती है। संविधान की शपथ लेने वाले सभी लोग क्या संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील कहे जा सकते हैं? कइयों का आचरण तो इससे उलटी दिशा में होता है! संविधान संबंधी बहस हवाई ढंग से नहीं, हकीकत और जिम्मेदारी के मद््देनजर होनी चाहिए।