इस तथ्य से पर्यावरण मंत्रालय अनजान नहीं है। मगर फिर भी कानूनों में बदलाव करके अभयारण्यों में चिड़ियाघर और सफारी शुरू करने की मंजूरी दे दी गई। पिछले साल जून में पुराने कानून में बदलाव करते हुए पर्यावरण मंत्रालय ने बाघ अभयारण्यों और दूसरे वन्यजीव संरक्षण के लिए बने अरण्यों और पार्कों के फैलाव वाले इलाकों में चिड़ियाघर और सैर-सपाटे के लिए खोलने की मंजूरी दे दी।

इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष अधिकार प्राप्त समिति का गठन किया था। उस समिति ने सिफारिश की है कि अभयारण्यों और वन्यजीव संरक्षण पार्कों के फैलाव वाले इलाकों में ऐसी गतिविधियों की मंजूरी तुरंत वापस ली जानी चाहिए।

इन फैलाव वाले इलाकों में केवल घायल या बीमार वन्यजीवों के उपचार आदि के लिए गतिविधियां शुरू की जा सकती हैं। खासकर बाघों के संरक्षण को लेकर इसमें अधिक चिंता जताई गई है, क्योंकि उनके संरक्षण को लेकर अब तक किए गए प्रयास विफल ही साबित हुए हैं। मानवीय गतिविधियों का उनके जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

यह छिपा नहीं है कि तमाम अभयारण्यों के भीतर और उनके फैलाव वाले इलाकों में सैर-सपाटे को बढ़ावा देने के मकसद से चोरी-छिपे अनेक प्रकार की व्यावसायिक गतिविधियां चलाई जाती हैं। बहुत सारे अभयारण्यों में मोटेल, विश्राम गृह, रेस्तरां और जलसे आदि के लिए जगहें बना दी गई हैं, जिनमें पूरे साल कुछ न कुछ गतिविधियां चलती रहती हैं। इन अभयारण्यों की तरफ सैलानियों को आकर्षित करने के लिए विज्ञापन तक दिए जाते हैं।

कई जगह सफारी शुरू की गई है। यानी गाड़ियों में बिठा कर सैलानियों को उन वनों में विहार कराया जाता है। चिड़ियाघर खोलने की इजाजत देने के पीछे भी मकसद यही है कि इससे सैलानियों को आकर्षित किया जा सकता है। अभयारण्य और वन्यजीव पार्क पर्यटन को बढ़ावा देने का कारगर माध्यम साबित होते हैं। इसलिए सरकारें राजस्व के लोभ में ऐसी जगहों पर पर्यटन संबंधी गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं।

मगर इन गतिविधियों के चलते वन्यजीवों के स्वाभाविक जीवन पर बहुत बुरा असर पड़ता है। इससे उनकी प्रजनन क्षमता घटती और कई बीमारियां घेर लेती हैं। वन्यजीव अंगों की तस्करी करने वालों की भी इस तरह अभयारण्यों में घुसपैठ आसान हो जाती है। इसलिए वन्यजीवों के लिए काम करने वाली संस्थाएं और विशेषज्ञ लगातार कहते रहे हैं कि अभयारण्यों के आसपास व्यावसायिक गतिविधियां नहीं चलाई जानी चाहिए।

अभयारण्यों में होटल, मोटेल, रेस्तरां, जलसाघर, विश्रामगृह, सफारी आदि खुलने से वहां हर समय वाहनों की आवाजाही लगी रहती है। रात को भी तेज रोशनी होती और जलसों में बजने वाले तेज संगीत आदि से वन्यजीवों का स्वाभाविक जीवन प्रभावित होता है। वे हर समय एक प्रकार के भय में जीते हैं। न तो ठीक से उनका भोजन हो पाता है और न ही पूरी नींद ले पाते हैं।

यही वजह है कि बहुत सारे लुप्तप्राय वन्यजीवों की प्रजनन दर घट जाती और वे बीमार रहने लगते हैं। बाघों के मामले में अनेक प्रयासों के बावजूद उनकी संख्या बढ़ाना चुनौती बनी हुई है। अभयारण्यों के भीतर मानवीय गतिविधियां समाप्त करने के इरादे से ही सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ साल पहले उनमें बसे गांवों को हटाने का आदेश दिया था। इन तथ्यों से वाकिफ होने के बावजूद अगर पर्यावरण मंत्रालय ने व्यावसायिक गतिविधियों की मंजूरी दी, तो यह हैरानी की बात है।