पिछले करीब एक महीने के दौरान अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में यह तीसरा बड़ा आतंकवादी हमला है। इससे समझा जा सकता है कि अफगानिस्तान अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से किस कदर दो-चार है। इससे यह भी साफ होता है कि अफगानिस्तान में सुरक्षा के मोर्चे पर सुधार की तमाम कोशिशों के बावजूद आतंकवादी देश में राजधानी काबुल तक में बड़े हमले करने में सक्षम हैं। गौरतलब है कि गुरुवार की सुबह काबुल स्थित अमेरिकन यूनिवर्सिटी आॅफ अफगानिस्तान पर आतंकियों ने हमला कर दिया, जिसमें कम से कम सोलह लोगों की जान चली गई और दर्जनों घायल हो गए।
अलबत्ता अफगान पुलिस ने तुरंत कार्रवाई करते हुए दो हमलावरों को मार गिराया और विश्वविद्यालय की इमारत में फंसे दो सौ से ज्यादा लोगों को सुरक्षित निकाल लिया। काबुल में इस अमेरिकी विश्वविद्यालय की स्थापना 2006 में की गई थी और आज वहां करीब सत्रह सौ विद्यार्थी पढ़ाई के साथ काम भी करते हैं। अंग्रेजी के पाठ्यक्रम के अलावा वहां कुछ पेशेवर योग्यता वाली स्नातक डिग्रियां भी दी जाती हैं। चूंकि वहां पढ़ाने वाले शिक्षकों में लगभग सभी विदेशी हैं, इसलिए यह विश्वविद्यालय पहले भी आतंकियों के निशाने पर रहा है। वजह साफ है। इस संस्थान से निकलने वाले विद्यार्थी तालिबान जैसे संगठनों के भविष्य के लिए अनुकूल नहीं होंगे। यों भी, पश्चिमी देशों के समर्थन से चलने वाली काबुल सरकार को तालिबान अपना दुश्मन और अपने रास्ते की सबसे बड़ी बाधा मानता है।
ऐसी हर घटना के बाद तालिबान से निपटने की चिंता न केवल संबंधित देश को होती है, बल्कि दुनिया भर में आतंकवाद से त्रस्त तमाम देशों को इसकी फिक्र होती है। काबुल में ताजा हमले की जिम्मेदारी अभी तक किसी ने नहीं ली है, लेकिन समूचे अफगानिस्तान में तालिबान ने जो कहर बरपाया हुआ है और अब आइएस ने दखल देना शुरू कर दिया है, उससे समझा जा सकता है कि इस घटना के पीछे किसका हाथ होगा! खासतौर पर हिंसा को अपने लिए धर्म की तरह मानने वाले तालिबान ने समूचे अफगानिस्तान में राजनीति से लेकर समाज तक की क्या हालत कर दी है, यह दुनिया से छिपा नहीं है। लेकिन अफगानिस्तान में अपना दबदबा कायम करने के लिए ऐसे हमलों की जिम्मेदारी लेने में आइएस और तालिबान के बीच एक तरह की होड़ लगी रहती है। तालिबान अफगानिस्तान में बीस से ज्यादा सूबों में सक्रिय है, जबकि आइएस फिलहाल एक या दो सूबों में ही अपनी पैठ बना सका है। इसके बावजूद उसने सरकार के खिलाफ जंग छेड़ रखी है।
अभी आइएस के मुकाबले तालिबान से निपटना अफगान सरकार के लिए ज्यादा बड़ी चुनौती है। मगर सवाल है कि तालिबान के पीछे कौन खड़ा है! अफगानिस्तान के राष्ट्रपति ने साफ शब्दों में पाकिस्तान पर यह आरोप लगाया है कि वह सीमाक्षेत्र में तालिबान को लगातार समर्थन दे रहा है और ताजा हमले की योजना भी पाकिस्तान में ही बनाई गई थी। तालिबान को पाकिस्तान के भीतर से खाद-पानी मिलने की हकीकत कोई दबी-ढकी नहीं रही है। विडंबना यह है कि फिर भी पाकिस्तान अमेरिका की अगुआई वाले आतंकवाद विरोधी अंतरराष्ट्रीय गठबंधन में साझीदार होने का दम भरता रहा है। यह तथ्य आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक रणनीति की कमजोरी या विसंगति को भी रेखांकित करता है।