बुधवार को पंजाब विधानसभा ने सतलुज-यमुना जोड़ नहर से संबंधित दो प्रस्ताव पारित किए। इससे जाहिर है कि बेहद भावनात्मक बना दिए गए इस मसले का कोई हल निकलने की फिलहाल उम्मीद नहीं दिखती। यही नहीं, राज्य सरकार और राजनीतिक दलों को इस मामले में न न्यायपालिका के फैसले की परवाह है न जल बंटवारे के सिद्धांतों और परिपाटियों की; या वे इन सब की परवाह ही नहीं करना चाहते। उलटे वे एक ऐसी होड़ में शामिल हैं जो संवैधानिक तकाजों तथा संघीय भावना के भी खिलाफ है। उनके इस व्यवहार के पीछे एक बड़ी वजह यह भी है कि पंजाब विधानसभा के चुनाव नजदीक आ गए हैं। विधानसभा के विशेष सत्र में पारित किए गए पहले प्रस्ताव में राज्य सरकार को निर्देश दिया गया कि वह सतलुज-यमुना लिंक नहर की जमीन किसी भी एजेंसी को न सौंपे और किसी को भी नहर का निर्माण करने की इजाजत न दे। दूसरा प्रस्ताव कहता है कि राज्य सरकार को पानी जारी करने पर हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान से लागत व रॉयल्टी वसूलने का मामला केंद्र के सामने उठाना चाहिए।

ये दोनों प्रस्ताव, पंजाब में पैठ रखने वाले राजनीतिक दलों के बीच एक दूसरे से बढ़ कर राज्य के हितों का रक्षक दिखने की होड़ का नतीजा हैं। गौरतलब है कि ये प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुए। कांग्रेस के विधायक सदन में मौजूद नहीं थे, क्योंकि वे सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे चुके हैं। न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि अंतर-राज्यीय जल समझौते को रद््द करने का 2004 का पंजाब विधानसभा का फैसला और संबंधित अधिनियम असंवैधानिक हैं। यों भी कोई राज्य बहुपक्षीय समझौते को इकतरफा ढंग से रद््द नहीं कर सकता। इसी तरह, हरियाणा को जारी किए जाने वाले पानी पर शुल्क वसूलने का इरादा पंजाब सरकार ने 2006 में भी जताया था, पर सर्वोच्च अदालत ने उस पर पानी फेर दिया था। लिहाजा, समझा जा सकता है कि ताजा दोनों प्रस्तावों का क्या हश्र होना है; वे न्यायिक समीक्षा में नहीं टिकेंगे। यों भी हरियाणा सरकार ने दोनों प्रस्तावों के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट की शरण में जाने के संकेत दिए हैं। पंजाब को तीन बार इस मामले में अदालत में हार का मुंह देखना पड़ा है।

अनुमान लगाया जा सकता है कि वही कहानी एक बार फिर दोहराई जाएगी। फिर भी, पंजाब की सारी पार्टियां सर्वोच्च अदालत के फैसले से उलट रवैया जारी रखे हुए हैं तो इसीलिए कि उन्हें लगता है नरम रुख अपनाने से चुनाव में नुकसान उठाना पड़ सकता है। इससे चुनाव में किसको क्या फायदा होगा, यह तो बाद में पता चलेगा, पर याद रहे कि 2004 में अमरिंदर सिंह ने जल बंटवारा समझौते को पलीता लगाने का जो कदम उठाया था उसका कोई लाभ उन्हें बाद के चुनावों में नहीं मिला था। इसलिए अच्छा होगा कि पंजाब की पार्टियां इस मामले को भुनाने के लोभ से उबरें और जल विवाद के सौहार्दपूर्ण व स्थायी समाधान की ओर बढ़ें। यह सही है कि पंजाब भी पानी की समस्या से जूझ रहा है, पर सतलुज-यमुना लिंक नहर का निर्माण पूरा न होने देना इसका समाधान नहीं है। पंजाब के बहुत सारे इलाके ‘डार्क जोन’ की श्रेणी में पहुंच गए हैं, यानी वहां भूजल का भंडार या तो समाप्त हो गया है या इतना नीचे चला गया है कि किसी भी सूरत में निकाला नहीं जा सकता। जल प्रदूषण को रोकना और भूजल को बचाना ही पंजाब के लिए श्रेष्ठ विकल्प है।