अगर छठी कक्षा के लगभग तीन-चौथाई विद्यार्थी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक का एक पैराग्राफ भी ठीक से नहीं पढ़ पाते और सड़सठ फीसद बच्चे गणित के शुरुआती प्रश्न नहीं हल कर पाते तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्कूली पढ़ाई-लिखाई का स्तर क्या है। ये तथ्य दिल्ली सरकार की ‘चुनौती 2018’ की कार्ययोजना तैयार करने के क्रम में किए गए एक सर्वेक्षण के दौरान सामने आए। यह मूल्यांकन खुद सरकारी स्कूलों के शिक्षकों ने किया, जिसका मकसद दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय के तहत एक हजार से ज्यादा स्कूलों में पढ़ रहे छठी कक्षा के विद्यार्थियों के सीखने के स्तर का पता लगाना था। सवाल है कि स्कूल क्या केवल इसलिए हैं कि वहां बच्चे अपनी हाजिरी दर्ज कराएं और सरकार उनकी अपने दस्तावेजों में साक्षर नागरिकों के तौर पर गिनती कर ले? ऐसे तमाम लोग होंगे जिन्हें खुद पढ़ने का मौका नहीं मिला, लेकिन वे अपनी अगली पीढ़ी को शिक्षित करना चाहते हैं। उस सपने का क्या होगा और इसमें किसका दोष है? आखिर इस शर्मनाक हालत में सुधार के लिए कोई ठोस पहलकदमी क्यों नहीं हो रही? जब राजधानी दिल्ली में यह स्थिति है तो देश के बाकी हिस्सों के बारे में अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
सन 2005 में ही गैर-सरकारी संगठन ‘प्रथम’ ने अपने सर्वेक्षण के जरिए इस ओर ध्यान दिलाया था कि सरकारी स्कूल किस कदर महज खानापूर्ति के लिए चल रहे हैं। तब भी यही स्थिति थी कि पांचवीं कक्षा के विद्यार्थी दूसरी-तीसरी कक्षा की किताबें नहीं पढ़ पाते थे और गणित के शुरुआती सवाल भी हल नहीं कर पाते थे। अमूमन हर साल इस तरह की रिपोर्टें आती रहीं। खुद सरकार की ओर से भी ऐसे कई अध्ययन कराए गए, नतीजे वही पाए गए। सवाल है कि पिछले दस-ग्यारह सालों के दौरान इन रिपोर्टों के मद््देनजर क्या कार्ययोजना बनाई गई और उस पर कितना काम हुआ! जबकि अगर किसी समस्या को चिह्नित करके काम किया जाए तो कोई कारण नहीं है कि एक दशक से ज्यादा गुजर जाए और तस्वीर ज्यों की त्यों रहे।

दरअसल, इस मसले पर सरकारों का जो रुख रहा है, उसे देखते हुए लगता नहीं कि वे इसमें सुधार के लिए कोई इच्छाशक्ति रखती हैं! देश भर के स्कूलों में शिक्षकों के लाखों पद खाली हैं। लेकिन उनको नियमित शिक्षकों से भरने को लेकर कहीं किसी जिम्मेदारी का अहसास नहीं दिखाई देता। शिक्षकों के अभाव के बीच केवल ज्यादा से ज्यादा नामांकन को ही शैक्षिक हालत में सुधार का पर्याय मान लिया गया। स्कूलों में बच्चे क्या और कैसे पढ़ेंगे, यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी का सवाल हाशिये पर रहा। एक ओर शिक्षकों की घोर कमी का बुरा असर पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता पर पड़ रहा है, दूसरी ओर कुछ राज्यों में कई तरह के बहानों से सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार के तकाजे से हाथ खींचा जा रहा है। यह एक कड़वी हकीकत है कि अच्छी शिक्षा के दावे वाले निजी स्कूलों में उन्हीं बच्चों की पहुंच है, जिनके अभिभावकों की आर्थिक हैसियत इसकी इजाजत देती है। सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था के प्रति मौजूदा सरकारी उदासीनता एक बड़े तबके को साधारण शिक्षा से भी वंचित करेगी और