पूर्वोत्तर के इलाकों में सोमवार को तड़के करीब साढ़े चार बजे आए भूकम्प के बारे में सिर्फ अंदाजा लगाया सकता है कि अगर इसकी तीव्रता मामूली रूप से भी ज्यादा होती तो अभी कैसा त्रासद मंजर हमारे सामने होता। इस भूकम्प की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6.7 तक सिमटी रही। वरना सुबह के साढ़े चार बजे जब लोग गहरी नींद में अपने घरों में सो रहे होते हैं, उस वक्त ज्यादा तीव्रता वाले भूकम्प की स्थिति में जान-माल के नुकसान की कल्पना भी सिहरा देती है। ताजा भूकम्प से इम्फल में बाजार परिसर सहित कई इमारतों और सड़कों में दरारें आ गर्इं और कई स्कूली इमारतों की दीवारें गिर गर्इं। इस भूकम्प का केंद्र मणिपुर के तामेंगलोंग जिले में था, लेकिन इसके तेज झटके असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और झारखंड में भी महसूस किए गए।

स्थानीय निवासियों के मुताबिक पिछले पचास सालों के दौरान मणिपुर में भूकम्प के ये सबसे तेज झटके थे। लेकिन तीव्रता सीमित रहने की वजह से बड़ा नुकसान होने से बच गया। इसके बावजूद इसमें अब तक आठ लोगों की मौत और सैकड़ों के घायल होने की खबरें आर्इं हैं। अब राहत और बचाव के लिए संबंधित महकमे हरसंभव उपाय कर रहे हैं। जिस तरह इस भूकम्प का केंद्र जमीन के सत्रह किलोमीटर नीचे था, उसमें इसके दोहराने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए अगले कुछ दिनों तक लगातार सावधानी बरतने की जरूरत है।

मुश्किल यह है कि विज्ञान की तकनीकी उपलब्धियों के चलते सूखा, चक्रवात, तूफान वगैरह दूसरी प्राकृतिक आपदाओं के बारे में तो अक्सर पहले से संकेत मिल जाते हैं, लेकिन भूकम्प की पूर्व सूचना हासिल कर पाना आज भी लगभग असंभव बना हुआ है। यही वजह है कि भूकम्प के मामले में पहले से बचाव के इंतजाम करने का मौका नहीं मिल पाता और जान-माल के नुकसान का दायरा बढ़ जाता है। हालांकि यह भी सही है कि गांव से लेकर शहर तक आवास निर्माण के मामले में भूकम्प से बचाव के मद््देनजर जरूरी उपायों पर ध्यान नहीं दिया जाता है और जमीन हिलते ही घर ढह जाते हैं। जबकि विशेषज्ञों की ओर से यह सुझाव बार-बार दिया जाता है कि घर बनाते समय उसके भूकम्प-रोधी होने का खयाल रखा जाए। राष्ट्रीय भवन संहिता के तहत कई नियम-कायदे बनाए गए हैं।

मगर हकीकत यह है कि साधारण मकानों की बात तो दूर, ज्यादातर भव्य और बहुमंजिला इमारतें भी भूकम्प-रोधी पैमानों पर खरी नहीं उतरतीं। भवनों के निर्माण में पर्याप्त गुणवत्ता वाली सामग्रियों का इस्तेमाल न होना आम बात है। शहरीकरण की रफ्तार और तेजी से फैलते कंक्रीट के जंगल को विकास का पर्याय तो बना दिया गया है, लेकिन सुरक्षा के पैमानों का खयाल रखना जरूरी नहीं समझा जाता। इन जरूरतों की सरकार और समाज के स्तर पर अनदेखी का नतीजा लातूर, कच्छ, चमोली या नेपाल जैसे भूकम्पों में हम देख चुके हैं, जिनमें बड़ी तादाद में लोगों की जान गई और कई जगहों पर समूची मानव बस्तियां उजड़ गर्इं। भारतीय उपमहाद्वीप का आधे से कुछ अधिक हिस्सा भूकम्प के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है। ये इलाके घनी आबादी वाले हैं। भूकम्प का सामना करने के उपयुक्त डिजाइन के हलके घर बनाने या तल पर ही भूकम्परोधी उपाय करना लोग अनिवार्य मान लें तो जान-माल के नुकसान को काफी कम किया जा सकता है।