छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों के हमले में ग्यारह जवानों की शहादत से एक बार फिर यही जाहिर हुआ है कि राज्य में इस मसले के हल के लिए चलने वाली तमाम कवायदों के बावजूद हिंसक समूहों की मौजूदगी कायम है। नक्सली आज भी घात लगा कर इतना बड़ा नुकसान पहुंचाने में कामयाब हो जा रहे हैं।
हालांकि ऐसी हर घटना के बाद सरकार और संबंधित महकमों की ओर से यही भरोसा दिया जाता है कि इसके जिम्मेदार लोगों को बख्शा नहीं जाएगा और नक्सलियों के खात्मे के लिए अभियान तेज किया जाएगा। मगर सवाल है कि हर कुछ समय बाद नक्सली समूह सुनियोजित हमले को अंजाम देकर बड़ा नुकसान कर देते हैं, उसमें जवानों की जान चली जाती है तो इसे किस तरह की सुरक्षा-व्यवस्था के तौर पर देखा जाएगा!
गौरतलब है कि दंतेवाड़ा के एक इलाके में नक्सलियों की मौजूदगी की सूचना के बाद डीआरजी बल यानी डिस्ट्रिक रिजर्व गार्ड की एक टुकड़ी को वहां भेजा गया था। वापसी के क्रम में नक्सलियों ने अरनपुर मार्ग पर ‘इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस’ यानी आइईडी विस्फोट कर दिया, जिसमें डीआरजी के दस जवान और एक वाहन चालक की जान चली गई। इस हमले से साफ है कि डीआरजी जवानों के अभियान की जानकारी नक्सलियों को पहले लग गई थी और इसीलिए उन्होंने योजना बना कर यह हमला किया।
यह इस तरह की कोई पहली घटना नहीं है। ऐसे हमले के बाद सरकार और सुरक्षा बलों की सख्ती जब बढ़ती है तब ऐसे समूह कुछ वक्त तक शांत पड़ जाते हैं, लेकिन फिर मौका मिलते ही हिंसक हमले के जरिए अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की कोशिश करते हैं। बुधवार को हुई घटना में जिस डीआरजी के जवानों की जान गई, वे छत्तीसगढ़ पुलिस के खास जवान हैं, जिन्हें केवल नक्सलियों से लड़ने के लिए भर्ती किया गया है।
इस प्रशिक्षित समूह की विशेषता यह है कि इस समूह में आत्मसर्पण करने वाले और बस्तर के वातावरण में पले-बढ़े लोग शामिल होते हैं। ये लोग चूंकि जटिल जंगल और उसमें अपनी गतिविधियां संचालित करने वाले नक्सलियों के काम करने की प्रकृति को समझते हैं, इसलिए उनके जरिए कई मौकों पर अहम कामयाबी दर्ज की गई है। शायद यही वजह है कि डीआरजी के जवान खासतौर पर नक्सलियों के निशाने पर थे। हालांकि इस तरह के हमलों में कई मौकों पर सीआरपीएफ के जवानों पर भी घातक हमले किए गए हैं।
विचित्र यह है कि इस तरह की हिंसा के सहारे व्यापक राजनीतिक मुद्दों का हल खोजने का दावा करने के बावजूद नक्सली समूह अपने लक्षित तबकों के बीच भी किसी ठोस हल का रास्ता नहीं दर्शा पाए हैं। दूसरी ओर, इन नक्सलियों के घातक हमलों से निपटने के लिए सरकार की ओर से अब तक जितनी भी कोशिशें और नीतिगत पहलकदमी हुई, उनका असर सिर्फ तात्कालिक महत्त्व के रूप में ही दर्ज किया जा सका।
आखिर यह कैसे संभव हुआ कि दंतेवाड़ा जैसी संवेदनशील जगह में सुरक्षा बलों की टीम किसी अभियान पर गई और उसकी पूरी खबर नक्सलियों को लग गई? जाहिर है, हिंसा को ही अपना राजनीतिक हथियार मानने वाले नक्सली समूहों के खिलाफ सुरक्षा के प्रत्यक्ष मोर्चों के साथ-साथ एक मजबूत और सुगठित खुफिया तंत्र वक्त की जरूरत है।
लेकिन इस पहलू पर भी शायद ठोस और रणनीतिक तरीके से काम करने की जरूरत है कि बेहद मुश्किल भौगोलिक क्षेत्र के रूप में जंगल में अपनी गतिविधियां संचालित करने वाले नक्सलियों के बरक्स प्रभावित इलाकों में अभावों और मुश्किल में जीवन गुजारते आम लोगों के भीतर सरकार और प्रशासन के प्रति भरोसा पैदा किया जाए, ताकि जरूरत पड़ने पर वे नक्सलियों से निपटने में एक अहम सहयोगी की भूमिका निभा सकें।