प्रधानमंत्री की अगुआई में हुई नीति आयोग की बैठक में राज्यों के मुख्यमंत्रियों के रुख से एक बार फिर स्पष्ट हो गया कि संशोधित भूमि अधिग्रहण विधेयक को पारित करा पाना सरकार के लिए आसान नहीं है। कांग्रेस शासित नौ राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस बैठक का बहिष्कार किया। इनके अलावा तमिलनाडु, ओड़िशा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री भी नहीं आए।

तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने लिखित रूप में विधेयक पर अपनी असहमति भेजी। जो वहां आए, उनमें से दिल्ली और बिहार के मुख्यमंत्रियों ने यूपीए सरकार के समय 2013 में बने भूमि अधिग्रहण कानून की वकालत की। कुल मिला कर इस मुद्दे पर केवल भाजपा शासित राज्यों का समर्थन मिल पाया। यह बैठक बुलाने के पीछे नरेंद्र मोदी सरकार का मकसद था संशोधित भूमि अधिग्रहण विधेयक पर राज्य सरकारों को मनाना। अगले हफ्ते से संसद का मानसून सत्र शुरू होने जा रहा है। सरकार चाहती है कि इस सत्र में विधेयक को अंतिम रूप दे दिया जाए। क्योंकि प्रधानमंत्री का मानना है कि इस विधेयक के लटके रहने की वजह से ग्रामीण विकास संबंधी परियोजनाओं पर गंभीर असर पड़ रहा है।

विकास के तर्क पर उनकी सरकार शुरू से इस विधेयक के व्यावहारिक पहलुओं पर विचार किए बगैर आनन-फानन में पारित कराने की कोशिश करती रही है। जबकि हकीकत यह है कि न सिर्फ विपक्षी दल, संघ के कुछ आनुषंगिक संगठनों ने भी इस विधेयक पर आपत्ति दर्ज कराई है। पिछले सत्र में विपक्ष के भारी हंगामे के बाद सुझाव के लिए इस विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति को सौंप दिया गया था। उसके पास इससे संबंधित विभिन्न दलों के जो सुझाव पहुंचे उनमें से करीब पचासी फीसद विरोध में हैं। नीति आयोग की बैठक में राजग के सहयोगी दलों के कुछ मुख्यमंत्रियों ने भी सरकार से भिन्न मत जाहिर किया।

हालांकि मुख्यमंत्रियों के विरोधी रुख को देखते हुए भाजपा को इस विधेयक को कुछ दिन और ठंडे बस्ते में डालने का मौका मिल गया है। राज्यसभा में अपनी स्थिति को देखते हुए उसने संयुक्त सदन बुला कर इस विधेयक को पारित कराने का मन बनाया था, पर उसे लेकर चौतरफा निंदा शुरू हो गई थी। इधर बिहार आदि कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सुझाव दिए जा रहे हैं कि इस विधेयक पर कोई कदम बढ़ाने से परहेज करना चाहिए।

पहले ही ललित मोदी और मध्यप्रदेश में व्यापमं घोटाले को लेकर विपक्ष हमलावर है, संसद में इन मुद्दों पर हंगामा होने की संभावना है। ऐसे में भूमि अधिग्रहण विधेयक पर जल्दबाजी से विपक्ष को एक और मुद्दा हाथ लग जाएगा। इन सबका असर राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा। इसलिए केंद्र सरकार इस विधेयक को कुछ समय और रोके रखना चाहेगी। अक्तूबर-नवंबर में बिहार विधानसभा के चुनाव नतीजे आएंगे। उसके बाद ही शायद वह कोई कदम आगे बढ़ाने का सोचे। यों भी उसके पास यह बहाना है कि संयुक्त संसदीय समिति के सुझाव अभी नहीं आए हैं। जो हो, नीति आयोग की बैठक ने एक बार फिर यही रेखांकित किया है कि संशोधित भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर अगर सरकार अपना अड़ियल रुख नहीं बदलेगी तो उसकी मुश्किलें बनी रहेंगी।

 

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