राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (एकी) के बीच चल रही तनातनी से साफ है कि जनता परिवार के एक होने की करीब डेढ़ महीने पहले की गई घोषणा फिलहाल खटाई में पड़ गई है। कभी जनता दल में साथ रहे मगर बाद में कई दलों में बिखर गए नेताओं ने अप्रैल में एलान किया था कि वे अपनी-अपनी पार्टी का विलय कर एक नई पार्टी बनाने को राजी हो गए हैं। संभावित पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर मुलायम सिंह यादव के नाम पर सहमति बनने की बात भी कही गई। लेकिन जल्दी ही यह लगने लगा कि विलय की घोषणा को अंजाम देना उनके लिए आसान नहीं है।

अब तो यह भी कहा जा सकता है कि वे इसके प्रति गंभीर नहीं हैं। फिर विलय का एलान करने की जल्दबाजी क्यों की गई? यों जनता परिवार के नेताओं की वैचारिक पृष्ठभूमि समान रही है। वे अलग-अलग दल चलाते रहे हैं तो इसका कारण उनके क्षेत्रीय आधार के अलावा अहं भी रहा है। इसलिए शुरू से ही यह संदेह जताया जा रहा था कि क्या विलय की घोषणा साकार हो पाएगी।

अब विलय तो दूर, बिहार में राजद और जद (एकी) के बीच गठबंधन हो पाना भी मुश्किल दिखता है। हालांकि बिहार विधानसभा चुनाव के मद््देनजर गठबंधन की संभावना से न नीतीश कुमार ने इनकार किया है न लालू प्रसाद ने, पर दोनों के मेल-मिलाप में कई अड़चनें हैं। सीटों के बंटवारे को लेकर तो गतिरोध है ही, जद (एकी) की मंशा जहां नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने की है, वहीं लालू प्रसाद को यह हरगिज मंजूर नहीं है।

फिर, गठबंधन को लेकर दोनों के रुझान भी अलग-अलग हैं। पिछले दिनों लालू ने जीतनराम मांझी को भी गठबंधन में शामिल होने का न्योता दे दिया, जो नीतीश के धुर विरोधी बन चुके हैं और भाजपा से पटरी बिठाने की जुगत तलाश रहे हैं। मांझी का मामला छोड़ दें, तो लालू भी कांग्रेस और वाम दलों को साथ लेकर गठजोड़ बनाने की बात कह रहे हैं और नीतीश भी। जद (एकी) जब राजग का हिस्सा था, कांग्रेस तब राजद के साथ थी।

अब कांग्रेस का झुकाव जद (एकी) की तरफ है और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार मानने में उसे कोई एतराज नहीं है। वाम दल क्या रुख अपनाएंगे, फिलहाल यह साफ नहीं है। कोई भी समीकरण बने, अगर लालू प्रसाद और नीतीश कुमार अलग-अलग रहते हैं, तो भाजपा की चुनौती से पार पाना उनके लिए बहुत कठिन होगा। उनका साथ आना क्या गुल खिला सकता है यह विधानसभा की दस सीटों के उपचुनावों में दिख गया था, जब भाजपा को केवल चार सीटें हासिल हुई थीं, जबकि उससेकुछ महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में उसने राजद और जद (एकी) का लगभग सफाया कर दिया था।

जनता परिवार का विलय होता, तो इसका सबसे ज्यादा असर बिहार में ही पड़ता, क्योंकि और कहीं दो प्रमुख पार्टियों की ताकत जुड़ने की संभावना नहीं थी। लेकिन विलय को लेकर राजद के साथ ही समाजवादी पार्टी की भी कोई खास दिलचस्पी नहीं रही है। सपा के अनेक नेताओं को लगता है कि अगर विलय कर नई पार्टी बनी तो उसमें उनकी अहमियत घट जाएगी। इसलिए ये दोनों पार्टियां अब कहने लगी हैं कि जनता परिवार की एकता का फैसला बिहार चुनावों के बाद होगा।

लेकिन जब बिहार में भाजपा से मुकाबले के लिए एकता नहीं हो सकती, तो उत्तर प्रदेश की चुनौती उन्हें कैसे एक कर देगी, जहां सपा को अकेले भाजपा से भिड़ना है? जनता परिवार में अलग-अलग सुर होना यही बताता है कि इन पार्टियों के नेता न चुनावी चुनौती को लेकर संजीदा हैं न केंद्र में विपक्ष की प्रभावी भूमिका को लेकर।

 

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