हालांकि मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही साबित न होने के कई उदाहरण खोजे जा सकते हैं, लेकिन पूर्वानुमान की उसकी प्रक्रिया बेहतर हुई है। इसलिए उसकी चेतावनी को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। मौसम विभाग ने अप्रैल में ही इस साल मानसून के कमजोर रहने के संकेत दे दिए थे।

पर तब उसका शुरुआती पूर्वानुमान तिरानबे फीसद बारिश का था। अब उसका कहना है कि इस वर्ष बारिश अट्ठासी फीसद ही रह सकती है। अगर बारिश का आंकड़ा छियानबे फीसद से नीचे रह जाए, तो उसे सामान्य से कम माना जाता है। अट्ठासी फीसद के पूर्वानुमान ने सूखे का डर पैदा किया है। इससे निपटने की तैयारी के लिए ज्यादा वक्त नहीं है। इसलिए सरकार को अभी से कमर कसनी होगी। पूर्वानुमान के मुताबिक देश के उत्तर-पश्चिमी इलाकों में मानसून सबसे कमजोर रहेगा। जब भी ऐसी नौबत आती है, तो उसके पीछे अल नीनो प्रभाव की बात कही जाती है। वर्ष 2009 में भी यह बड़े सूखे का कारण बना था। लेकिन केंद्रीय भूविज्ञान मंत्री हर्षवर्धन ने भी माना है कि जलवायु बदलाव मानसून के लचर रहने के अनुमान के पीछे एक बड़ा कारण है।

ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव का सिलसिला बढ़ रहा है। इसलिए अंदेशा सूखे का ही नहीं, बल्कि कम बारिश में व्यतिक्रम का भी है। बेमौसम की बरसात का कहर हम देख चुके हैं। अब खरीफ की फसलों पर सूखे का साया मंडरा रहा है। तीन दिन पहले आए जीडीपी के आंकड़े बताते हैं कि पिछले वित्तवर्ष में जीडीपी की वृद्धि दर सात फीसद से अधिक रही, पर कृषिक्षेत्र में कोई वृद्धि होना तो दूर, उलटे 2.3 फीसद की कमी दर्ज की गई। ऐसा लगता है कि कृषि की हालत लगातार दूसरे साल भी शोचनीय रहेगी।

देश की करीब साठ फीसद आबादी की आजीविका सीधे खेती से जुड़ी है। पहले से ही बदहाल किसानों पर सूखे से कैसी मुसीबत आएगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। मगर असर खेती पर ही नहीं, समूची अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। उपभोक्ता सामान की बिक्री में गिरावट के आंकड़े आ चुके हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में मांग घट जाने के कारण यह गिरावट और बढ़ सकती है। बांधों में पानी की मात्रा घटने से बिजली उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ेगा। मौसम विभाग का पूर्वानुमान जारी होने से पहले ही रिजर्व बैंक ने मौजूदा वित्तवर्ष की बाबत विकास दर का सरकारी अनुमान कुछ कम कर दिया और महंगाई बढ़ने की चेतावनी दी।

सूखे के हालात में एक तरफ महंगाई और बढ़ेगी, तो दूसरी तरफ विकास दर में कमी आ सकती है। लेकिन सूखे की स्थिति दो कारणों से ज्यादा डरावनी हो जाती है। एक तो यह कि खेती पहले से ही घाटे का धंधा बनी हुई है। अपनी उपज का वाजिब दाम न मिलने का दंश किसान हर वक्त झेलते रहते हैं।

बाढ़ या सूखे की स्थिति में तो वे कहीं के नहीं रहते। दूसरा कारण पर्यावरणीय है। पानी की बढ़ती समस्या के बरक्स उसकी बर्बादी का मंजर भी हर ओर नजर आता है। भूजल का ऐसा अंधाधुंध दोहन होता रहा है कि देश के अनेक इलाके ‘डार्क जोन’ की श्रेणी में आ गए हैं यानी वहां जमीन के नीचे से पानी निकालना संभव नहीं रह गया है।

लिहाजा, खेती की ऐसी प्रणाली अपनाने और विकसित करने की आवश्यकता है जिसमें पानी की खपत काफी घटाई जा सके। सिंचाई के अलावा अन्य कार्यों में भी पानी की फिजूलखर्ची रोकने और वर्षा जल संचयन के कदम उठाने की जरूरत है। सूखे के साथ जमाखोरी और कालाबाजारी का अंदेशा भी बढ़ जाता है। सरकार को देखना होगा कि खाद्य पदार्थों की कीमतें बाजार की कुटिल चालों से प्रभावित न हो पाएं।

 

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