मणिपुर में फैली व्यापक हिंसा के मद्देनजर अब इस उपद्रव में शामिल लोगों को देखते ही गोली मारने का आदेश दे दिया गया है। वहां भारी संख्या में सेना, असम राइफल्स और स्थानीय पुलिस बल को तैनात किया गया है। वहां की स्थिति का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि नौ हजार से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं।

मणिपुर सरकार का कहना है कि लोग गलतफहमी के चलते हिंसा पर उतारू हो गए हैं। मगर सवाल है कि यह गलतफहमी पैदा कैसे हुई, क्या सरकार ने उसे दूर करने का कोई प्रयास किया। अगर सरकार ने सचमुच गंभीरता से इस मसले को सुलझाने का प्रयास किया होता, तो शायद यह नौबत ही न आने पाती। दरअसल, मणिपुर उच्च न्यायालय ने बुधवार को एक आदेश दिया, जिसमें कहा गया है कि सरकार मैतेई समुदाय के लोगों को आदिवासी समुदाय का दर्जा देने पर विचार करे।

मैतेई लोग अपने को आदिवासी समुदाय में शामिल करने की मांग कर रहे हैं

इसी को लेकर दूसरे आदिवासी समुदाय के लोगों ने हिंसक प्रदर्शन शुरू कर दिया। हालांकि यह मामला नया नहीं है, मैतेई समुदाय लंबे समय से अपने को आदिवासी समुदाय में शामिल करने की मांग कर रहा है। इसी संबंध में अदालत का दरवाजा खटखटाया गया था। मगर इस हिंसक प्रदर्शन की असली वजह अदालत का फैसला नहीं, बल्कि सरकार का रवैया है।

इस साल फरवरी में जब सरकार ने पहाड़ी इलाकों से अवैध प्रवासियों को निकालना शुरू किया था, तभी पहली बार हिंसा भड़की थी। वहां की नगा और कुकी समुदाय की तैंतीस जातियों को जनजाति का दर्जा मिला हुआ है और उनके लिए चिह्नित भूभाग पर किसी गैर-जनजातीय समुदाय के व्यक्ति का कब्जा नहीं हो सकता। मगर जिन लोगों को प्रवासी बता कर बाहर निकाला गया, कुकी समुदाय उन्हें अपने लोग बता रहा था।

दरअसल, विवाद की असल वजह यही है कि अगर अदालत के कहने पर सरकार ने मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा दे दिया, तो वे नगा और कुकी के लिए आरक्षित भूखंडों पर भी कब्जा जमाना शुरू कर देंगे। मैतेई समुदाय वहां आर्थिक और राजनीतिक रूप से काफी ताकतवर है। उनके हिस्से में भूखंड बेशक कम हो, पर संख्या बल में वे जनजातीय समुदायों से काफी अधिक हैं और प्रदेश की राजनीति में साठ में से चालीस विधानसभा सीटों पर काबिज हैं।

ऐसे में जनजातीय समुदायों को भय है कि मैतेई समुदाय उनका हक छीन लेगा। मैतेई समुदाय का कहना है कि मणिपुर के भारत में विलय से पहले उसे जनजातीय समुदाय का दर्जा मिला हुआ था, इसलिए उसकी पुरानी पहचान लौटा दी जाए। इसी पर विचार के लिए अदालत ने कहा है।
ऐसा नहीं कि मणिपुर सरकार जनजातीय और गैर-जनजातीय समुदायों के बीच लंबे समय से चल रहे इस संघर्ष से अनजान है।

जब फरवरी में उसने प्रवासियों को बाहर निकालने का अभियान शुरू किया, तभी उसे इन दोनों के बीच सामंजस्य बिठाने का प्रयास करना चाहिए था। पूर्वोत्तर में जातीय संघर्ष जब-तब हिंसक रुख अख्तियार कर लेता है और उसके चलते वहां का सारा जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। नाहक लोग मारे जाते हैं।

ऐसे में अगर सरकार कह रही है कि गलतफहमी के चलते लोग हिंसक हो उठे हैं, तो उस गलतफहमी को दूर करने की जिम्मेदारी भी उसी की है। मगर अभी तक उसकी तरफ से कोई ऐसी पहलकदमी नहीं देखी गई है। वह सेना के बल पर लोगों के विरोध को दबाने का प्रयास कर रही है। इस तरह विरोध शायद ही दबे।