वहां फैली हिंसा को रोकने में न तो केंद्र सरकार सफल हो पा रही है और न राज्य सरकार। दोनों ने वहां के नागरिकों को जैसे अपने हाल पर छोड़ दिया है। वहां गृहयुद्ध जैसे हालात हैं। अब तो यही लगता है कि वहां के लोग ही इस समस्या से पार पाने का कोई रास्ता निकालेंगे। एक महीने से ऊपर हो गया, वहां हिंसा भड़के।

इस बीच वहां के मैतेई और कुकी समुदाय के लोग दिल्ली आकर हिंसा रोकने की गुहार लगा गए। कई नामचीन हस्तियां मणिपुर के हालात पर गंभीर चिंता जता चुके और जता रहे हैं। मगर स्थिति काबू में नहीं आ पा रही है। रह-रह कर हिंसा भड़क उठती है। लोग मारे जाते हैं, उनके घर जला दिए जाते हैं। आंकड़ों के मुताबिक अब तक सौ से ऊपर लोग मारे जा चुके हैं।

पचास हजार से अधिक लोगों को अपना ठौर-ठिकाना छोड़ कर दूसरी जगहों पर शरण लेनी पड़ी है। हालांकि कुछ दिनों पहले केंद्रीय गृहमंत्री वहां गए और हिंसा पर उतरे लोगों से शांति का रास्ता अख्तियार करने की अपील कर आए। मगर उसका कोई असर हुआ नहीं। तबसे कई हिंसक घटनाएं हो चुकी हैं।

अब तो वहां मंत्री और सांसद भी सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे। कम से कम तीन मंत्रियों के घर जला दिए गए। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उपद्रवी तत्त्वों के सामने किस कदर सुरक्षाबल निस्सहाय हैं। महीना भर पहले जब हिंसा भड़की थी, तब उसे बेकाबू होते देख उपद्रवियों को देखते ही गोली मार देने का आदेश दिया गया। तब करीब दस दिन तक हिंसक घटनाएं रुकी रहीं।

मगर फिर भड़कीं, तो भयानक रूप ही लेती गर्इं। वहां के शस्त्रागार से चौबीस सौ अत्याधुनिक हथियार और भारी मात्रा में गोली-बारूद उपद्रवियों ने लूट लिए, जिसका उपयोग हिंसा के लिए किया जाने लगा। गृहमंत्री ने अपील की थी कि वे हथियार वापस कर दें, मगर अभी तक इसका भी ब्योरा नहीं मिला है कि कितने हथियार वापस आए। विपक्षी दल खुल कर आरोप लगा रहे हैं कि सरकार खुद कुछ चरमपंथी समूहों को प्रोत्साहन दे रही है।

इसके कुछ प्रमाण भी पेश करने के प्रयास किए गए। मगर न तो इस पर सरकार की तरफ से कोई प्रतिक्रिया आई और न हिंसा को रोकने का कोई व्यावहारिक उपाय निकाला गया। असम के मुख्यमंत्री को कुकी और मैतेई समुदाय के बीच समझौता कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई, मगर उसे दोनों समुदायों ने अस्वीकार कर दिया। राज्यपाल की अगुआई में एक शांति समिति गठित की गई, मगर उसका भी कोई प्रभाव नजर नहीं आता।

मणिपुर को लेकर बहुत सारे लोगों के मन में यह रहस्य बना हुआ है कि आखिर सरकारें हिंसा को रोकने में कामयाब क्यों नहीं हो रही हैं या कोई ऐसा रास्ता अख्तियार करती क्यों नजर नहीं आ रही हैं, जिससे वहां शांति बहाली हो। दरअसल, अब यह भी साफ हो चुका है कि इस हिंसा की जड़ में केवल मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने पर विचार करने का वहां के उच्च न्यायालय का आदेश नहीं, बल्कि राज्य सरकार की घोषित-अघोषित नीतियां और इरादे हैं। इस तरह स्वाभाविक ही सरकार के हिंसा रोकने के इरादे को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं। आखिर अब तक बातचीत की कोई गंभीर पहल क्यों नहीं हुई, उपद्रवियों का भरोसा जीतने का प्रयास क्यों नहीं किया गया।