पुरुषोत्तम भगवान राम भारतीय जनमानस ही नहीं, दुनिया के एक बड़े हिस्से, हिंदू ही नहीं, दूसरे धर्मों के लोगों की भी आस्था से जुड़े हैं। वे एक आदर्श चरित्र हैं, आदर्श परिवार और समाज की स्थापना के लिए संघर्षरत हैं। धीरोदात्त नायक हैं। आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श भाई और आदर्श प्रजा पालक। सीता आदर्श बेटी, आदर्श बहन, आदर्श पत्नी और आदर्श बहू हैं।
भगवान हनुमान उनके अनन्य भक्त। इसलिए इनके चरित्र लोक आस्था में गहरे बसे हुए हैं। स्वाभाविक ही जब इनके चरित्र के साथ किसी प्रकार की तोड़-फोड़ करने की कोशिश की जाती है, तो उस आस्था को चोट पहुंचती है। ऐसा नहीं माना जा सकता कि मनोज मुंतशिर को यह बात पता नहीं। उन्होंने तो खूब बढ़-चढ़ कर भगवान राम से अपना अगाध प्रेम जाहिर किया।
फिर भी उन्होंने जानबूझ कर अगर राम, सीता और हनुमान के चरित्र को बिगाड़ने का प्रयास किया तो उसकी निंदा स्वाभाविक है। हालांकि शुरू में उन्होंने फिल्म के हर संवाद को उचित ठहराने का प्रयास किया, मगर जब चौतरफा विरोध बढ़ गया, तो उन्होंने स्वीकार कर लिया है कि फिल्म आदिपुरुष के जिन संवादों को लेकर लोगों को आपत्ति है, उन्हें बदल दिया जाएगा।
रामायण की कथा के इतने रंग हैं कि उसमें हर रचनाकार अपने-अपने ढंग से रंग चुनता रहा है। यही वजह है कि जितने प्रकार की रामायणें दुनिया भर में लिखी गई होंगी, जितनी रामलीलाएं खेली जाती होंगी, जितनी फिल्में और धारावाहिक इसे लेकर बने होंगे, उतने और किसी पौराणिक कृति पर नहीं बने। हर किसी ने कुछ न कुछ अलग तरीके से पेश करने का प्रयास किया है।
मगर सबमें मूल बात यही है कि किसी ने भी रामायण की मूल भावना के साथ छेड़छाड़ नहीं की है, किसी भी चरित्र को विद्रूप करने का प्रयास नहीं किया है, बल्कि उसके उज्ज्वल पक्षों को और उभारने की ही कोशिश की है। ऐसे में अलग रचने की चुनौती मनोज मुंतशिर के सामने भी रही होगी। मगर अलग दिखने के लिए उन्होंने जिस तरह बिल्कुल टपोरी तरीका अपनाया, वह भारतीय मन कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता।
फिल्म का जो शिल्प चुना और उसकी तैयारी में जिस तरह के तंत्र का इस्तेमाल किया गया है, उसी से स्पष्ट है कि उनका मूल मकसद रामायण में से कुछ नई बात निकाल कर पेश करने का था ही नहीं। दरअसल, आजकल कथावाचकों का एक ऐसा वर्ग भी तैयार हो गया है, जो रामायण की कथा को बिल्कुल सड़कछाप भाषा में सुना कर तालियां बटोरने का प्रयास करता देखा जाता है। मनोज मुंतशिर ने भी वही करने की कोशिश की। इस कोशिश में कमाई के लिहाज से वे सफल भी बताए जा रहे हैं।
जब भी कोई रचना तालियां और पैसा बटोरने के मकसद से लिखी या बनाई जाती है, तो उसका हश्र यही होता है। कुछ दिन की सतही उत्तेजना के बाद वह निस्तेज हो जाती है। अच्छी बात है कि इस फिल्म को लेकर उस तरह तोड़-फोड़ और हिंसा की घटनाएं नहीं होने पार्इं, लोगों की आस्था आहत तो हुई, पर उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से विरोध जताया।
मगर सवाल अब भी यही है कि आखिर मनोज मुंतशिर गहन आस्था के पौराणिक चरित्रों को इस तरह विकृत कर समाज को देना क्या चाहते थे। बल्कि इस फिल्म से यही जाहिर होता है कि उन्हें न तो भारतीय समाज की बुनावट की सही पहचान है और न वे उस ताने-बाने को मजबूत बनाए रखने में यकीन करते हैं।