उत्तराखंड के बाद यह मोदी सरकार और भाजपा के लिए दूसरा झटका है। साथ ही सबक भी। सर्वोच्च अदालत ने अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल के फैसले को गलत और असंवैधानिक करार दिया है। साथ ही अदालत ने 15 दिसंबर 2015 से पहले वाली स्थिति बहाल करने का निर्देश दिया है। गौरतलब है कि अरुणाचल प्रदेश की नबाम तुकी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार दिसंबर में बर्खास्त कर दी गई थी। यह सही है कि कांग्रेस विधायक दल में बगावत के चलते नबाम तुकी सरकार का बहुमत संदिग्ध हो गया था। पर राज्यपाल ने जो किया, उसे कतई निष्पक्ष और उनके पद के संवैधानिक दायित्व के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। राज्यपाल ने विधानसभा का सत्र आहूत किया। इस बारे में न मुख्यमंत्री से परामर्श किया न विधानसभा अध्यक्ष से।

विधानसभा का सत्र बुलाया जाना तय था, पर राज्यपाल के दखल से वह एक महीना पहले ही बुला दिया गया। एक और अपूर्व बात यह हुई कि विधानसभा का वह सत्र एक कम्युनिटी हॉल में संपन्न हुआ, जिसमें कांग्रेस के सैंतालीस में से इक्कीस विधायकों और भाजपा विधायकों ने मिल कर मुख्यमंत्री नबाम तुकी और विधानसभा अध्यक्ष नबाम रेबिया को पद से हटा दिया। फिर कांग्रेस के बागी विधायक दल के नेता कलिखो पुल को नया मुख्यमंत्री चुन लिया। राज्यपाल ने उन्हें शपथ दिला दी। इस सारे नाटकीय घटनाक्रम में राज्यपाल की भूमिका शुरू से विवादास्पद रही; लग रहा था कि वे नबाम तुकी सरकार की विदाई में अपनी ओर से हरसंभव मदद कर रहे हैं। इसीलिए संविधान पीठ ने अपने फैसले में टिप्पणी की है कि राज्यपाल को किसी तरह के मतभेद, सियासी झगड़े, दलगत असंतोष और टूट-फूट से परे होना चाहिए। यों इस तकाजे को राजखोवा भी समझते होंगे, पर शायद उन्हें केंद्र के अपने आकाओं को खुश करना था। सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद क्या उन्हें अपने पद पर बने रहने का नैतिक अधिकार रह गया है?

अरुणाचल प्रदेश में मिली कामयाबी से उत्साहित भाजपा ने उत्तराखंड में भी वैसा ही खेल दोहराने की कोशिश की, पर वहां बागी कांग्रेस विधायकों से हाथ मिला कर हरीश रावत सरकार को अस्थिर करने का उसका दांव बेकार गया। बारह मई को सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को खारिज और रावत सरकार को बहाल कर दिया। इसके दो महीने बाद अरुणाचल के मामले में भी कांग्रेस को कानूनी जीत हासिल हुई है। अलबत्ता यह सवाल जरूर उसके सामने है कि विधानसभा में वह बहुमत कैसे साबित करेगी? जो हो, संविधान पीठ का फैसला बहुमत की दावेदारी से संबंधित नहीं है, बल्कि यह राज्यपाल के पद के दुरुपयोग के खिलाफ है।

अनुच्छेद तीन सौ छप्पन के बेजा इस्तेमाल के लिए कांग्रेस को भाजपा कोसती आई थी। लेकिन कैसी विडंबना है कि कांग्रेस-मुक्त भारत का दम भरते हुए भाजपा ने कांग्रेस के ही एक खराब रिकार्ड का अनुसरण किया है। यह भी दिलचस्प है कि सर्वोच्च अदालत का फैसला जिस दिन आया, उस दिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह गुवाहाटी में ‘नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस’ (एनईडीए) की घोषणा और जनता के सामने ‘गुवाहाटी घोषणापत्र’ जारी करने वाले थे। असम में मिली जीत से उत्साहित भाजपा उत्तर-पूर्व में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए बेचैन है और सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले के बावजूद वह अपनी इस रणनीति में जुटी रहेगी। पर विश्वसनीयता के लिहाज से उसने जरूर अपना नुकसान किया है। विपक्ष में रहते हुए भाजपा संघीय भावना का दम भरती रहती थी। पर अब वह खुद संघीय भावना को कुचलने और संघीय ढांचे की तौहीन करने के कारण कठघरे में खड़ी है।