मगर पुलवामा के अचन गांव में एक कश्मीरी पंडित की हत्या से इस पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। यह सही है कि घाटी में सुरक्षा बलों और सैन्य ठिकानों पर हमले अब काफी कम हो गए हैं, लेकिन आम नागरिकों और खासकर कश्मीरी पंडितों और प्रवासी कामगारों की सुरक्षा से जुड़े सवाल अब भी अहम हैं।

इन्हें लंबे समय से योजनाबद्ध तरीके से निशाना बनाया जा रहा है। इसे रोक पाने में सरकार को विशेष सफलता मिलती नहीं दिख रही है। लक्षित हमलों में अक्तूबर 2021 से अब तक पांच पंडितों की हत्या की जा चुकी है। इनमें से चार ऐसे थे, जिन्होंने 1990 में आतंक के भयावह दौर में भी घाटी से पलायन नहीं किया था। अचन गांव के साठ पंडित परिवारों में से उनसठ तभी पलायन कर गए थे।

अब ताजा घटना में मारे गए कश्मीरी पंडित का परिवार भी पलायन की सोच रहा है। सरकार पंडितों पर खतरे से अनजान नहीं है। मारे गए व्यक्ति को पुलिस ने जान पर खतरे के बारे में पहले ही आगाह कर दिया था, जिसके बाद वे पिछले तीन-चार महीने से अपने काम पर नहीं जा रहे थे। घर के पास सुरक्षा के लिए पुलिस की भी तैनाती थी। इस सारे एहतियात के बावजूद उनकी हत्या हो जाने से लगता है कि आतंकियों के पास स्थानीय समर्थन है, जो उन्हें लक्ष्य की गतिविधियों की खबर देता था।

इससे पहले भी ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें पड़ोसियों या सहकर्मियों ने ही आतंकियों तक सूचनाएं पहुंचार्इं और फिर किसी निर्दोष को निशाना बनाया गया। सुरक्षातंत्र आतंकी संगठनों और आतंकियों के बारे में खुफिया सूचनाएं इकट्ठा कर उनके इरादों पर पानी फेर सकता है, लेकिन जब आम नागरिक अपने पड़ोसी या सहकर्मी के बारे में आतंकियों को खबर देने लगें, तो इसे रोक पाना कठिन चुनौती है।

इन हत्याओं से आम पंडितों और प्रवासी कामगारों को यह लगना स्वाभाविक है कि सरकार उनकी सुरक्षा में विफल है और वे फिर पलायन की सोच सकते हैं। पर यह आतंक को खाद-पानी देने जैसा होगा। आतंक के पोषक और उनके आका भी यही चाहते हैं कि डर कर घाटी में बचे-खुचे पंडित भी पलायन कर जाएं और दशकों पहले घर-बार छोड़ कर भाग चुके पंडित घर वापसी के बारे में कतई न सोचें।

सरकार घर-बार छोड़कर भाग चुके पंडितों की घाटी में वापसी चाहती है। पर वे लोग, जिन्होंने नब्बे के दशक में आतंक के दौर में भी घाटी नहीं छोड़ा, अब चुन-चुन कर मारे जा रहे हैं तो जम्मू या देश के अन्य हिस्सों में रह रहे पंडितों को वापसी के लिए कैसे मनाया जा सकता है। असुरक्षा की भावना अब भी उतनी ही है, जितनी पहले थी।

इनमें अपनी सुरक्षा के प्रति भरोसा जगाना सरकार की पहली जिम्मेदारी है। घाटी में सक्रिय आतंकियों के खात्मे में सुरक्षा तंत्र ने काफी कामयाबियां हासिल की हैं। अब जरूरत है खुफिया तंत्र को दूसरी तरह की चुनौतियों का सामना करने को तैयार करने की। आतंकी संगठनों में नए भर्ती हुए युवाओं और उनके मददगारों की शिनाख्त जरूरी है, ताकि लक्षित हत्याओं के उनके इरादों को पहले ही नाकाम किया जा सके। घाटी में हालात सुधरने के केंद्र सरकार के दावों की सत्यता इसी से परखी जाएगी कि घाटी में अल्पसंख्यक पंडित और प्रवासी कामगार खुद को कितना सुरक्षित महसूस करते हैं।