इस बात की कल्पना भी असहज कर दे सकती है कि किसी व्यक्ति को चार-पांच घंटे या उससे ज्यादा देर तक लगातार काम करते रहना पड़े और जरूरत पड़ने भी उसके लिए शौचालय की सुविधा न हो। मगर यह समस्या एक विद्रूप बन जाती है जब इस तरह की मुश्किल महिला कर्मचारियों से जुड़ी हो।
देश में चलने वाली रेलगाड़ियों में आमतौर पर सभी डिब्बों में शौचालय की सुविधा होती है और यात्री अपनी जरूरत के मुताबिक उसका उपयोग करते हैं। मगर ट्रेन के इंजनों में आमतौर पर शौचालय की व्यवस्था नहीं होती, जिसकी वजह से चालकों को अन्य विकल्प अपनाने पड़ते हैं। इस बुनियादी सुविधा के अभाव की स्थिति में महिलाओं को कैसी समस्या होती होगी, इसका अंदाजा भर लगाया जा सकता है। यही वजह है कि महिला ट्रेन चालकों के एक समूह ने रेलवे बोर्ड से आग्रह किया है कि या तो उनके कामकाज की दयनीय परिस्थितियों में सुधार किया जाए या फिर उन्हें अन्य विभागों में स्थानांतरित कर दिया जाए।
भारतीय रेल के व्यापक तंत्र में तमाम समस्याओं पर बात होती रही है, उसमें सुधार के लिए काम होते रहे हैं। इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर की सेवा बनाने के दावों के बीच बुलेट ट्रेन या अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस ट्रेनों के संचालन की घोषणाएं होती रही हैं। मगर ट्रेन को चलाने और गंतव्य तक सुरक्षित पहुंचाने की जिम्मेदारी जिन चालकों पर होती है, उनकी सुविधा-असुविधा पर बहुत कम बात होती है।
इंजन में बुनियादी सुविधाओं के अभाव की स्थिति में पुरुष चालक तो किसी तरह अपना काम चला लेते हैं, लेकिन महिलाओं के सामने बहुस्तरीय चुनौतियां होती हैं कि वे अपनी ड्यूटी या फिर निजी जरूरतों के लिए ट्रेन से बाहर कैसे जाएं। उन्हें शौचालय की सुविधा की कमी और माहवारी के समय पैड नहीं बदल पाने सहित कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
सवाल है कि अत्याधुनिक तकनीकों से लैस उच्च गति वाली ट्रेनें चलाने की घोषणाओं के बीच इनके इंजन को शौचालयों की सुविधा से लैस क्यों नहीं किया जा सकता? ट्रेनों में महिला चालकों की जरूरतों का ध्यान रखते हुए अगर रेलगाड़ियों के इंजन में बुनियादी सुविधाओं का इंतजाम किया जाता है, तभी आधुनिकीकरण या इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने के दावों का कोई मतलब है!