सरकारी विज्ञापनों के मसले पर इस साल मई में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि इनमें केवल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और भारत के मुख्य न्यायाधीश की तस्वीरें लगाई जा सकती हैं। सरकार की ओर से जारी विज्ञापनों पर आने वाले भारी खर्च के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश इसलिए अहम था कि इसमें आखिर जनता के पैसे का बेजा इस्तेमाल होता है। लेकिन इस फैसले में जिस तरह ऐसे विज्ञापनों में सिर्फ देश के तीन शीर्ष पदाधिकारियों की तस्वीरें लगाने की शर्त रखी गई, उस पर राज्य सरकारों और राजनीतिक दलों की ओर से असहमति के स्वर उभरे। इसी संदर्भ में कुछ राज्य सरकारों ने इस मांग के साथ सुप्रीम कोर्ट से उस फैसले पर पुनर्विचार का अनुरोध किया था कि उन्हें अपने विज्ञापनों में मुख्यमंत्री की तस्वीर के इस्तेमाल की इजाजत दी जाए।
अब केंद्र सरकार ने भी विज्ञापनों में मंत्रियों की फोटो लगाने की इच्छा के साथ राज्य सरकारों की अपील के साथ खड़ी हो गई है। इस मसले पर अटॉर्नी जनरल ने अदालत को कहा है कि नागरिकों को सरकार की योजनाओं के बारे में जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है और ऐसी स्थिति में पूरे फैसले पर फिर से गौर किया जाना चाहिए; विज्ञापनों और होर्डिंग्स पर किसी तरह की पाबंदी नहीं होनी चाहिए।
लगभग डेढ़ साल पहले अदालत ने माधवन मेनन समिति का गठन कर इस मसले पर सुझाव मांगे थे। समिति ने सरकारी विज्ञापनों में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के अलावा राज्यपाल और मुख्यमंत्री की भी तस्वीरें प्रकाशित करने की सलाह दी थी। लेकिन इस साल मई में अदालत ने अपने दिशा-निर्देश में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और भारत के मुख्य न्यायाधीश की ही तस्वीरें लगाने की इजाजत दी थी। पर यह भी संभव है कि केंद्र और अलग-अलग राज्यों में दो भिन्न या विरोधी राजनीतिक दलों की सरकारें हों। ऐसी स्थिति में अगर कोई राज्य सरकार अपने विज्ञापन में मुख्यमंत्री के बजाय प्रधानमंत्री की तस्वीर दे, तो यह उसके लिए असुविधाजनक होगा।
राज्य में कार्यपालिका का प्रमुख मुख्यमंत्री होता है। राज्य-सूची में आने वाले काम राज्य सरकार के जिम्मे होते हैं। जनहित या जन-जागरूकता के लिए कोई भी संदेश उस राज्य-विशेष के लिए हो सकता है। ऐसे में मुख्यमंत्री के बजाय प्रधानमंत्री की तस्वीर लगाने पर सवाल स्वाभाविक है। लेकिन यह भी सच है कि सरकारी विज्ञापनों में मंत्रियों और नेताओं की तस्वीरें इस तरह प्रकाशित की जाती हैं कि वे उपलब्धियां सरकार की न होकर उनकी लगती हैं। यह एक तरह से सरकारी दायित्वों के लिए किसी खास व्यक्ति का महिमामंडन लगता है और करदाताओं के पैसे के साथ-साथ सत्ता का भी दुरुपयोग है।
जो पार्टी सत्ता में रहती है, वह सरकारी विज्ञापनों को कई बार अपने राजनीतिक प्रचार-प्रसार और चुनावी अभियान का जरिया बना लेती है। इसके अलावा, कई बार देश की किसी दिवंगत महान विभूति के जन्मदिन या पुण्यतिथि पर उनके प्रति सम्मान जाहिर करने के लिए कई विभागों की ओर से संदेश वाले विज्ञापन जारी किए जाते हैं। यह फिजूलखर्ची के सिवा और क्या है? इसलिए इस संबंध में नए दिशा-निर्देश तय करते समय अगर देश के संघीय ढांचे, बहुदलीय प्रणाली और लोकतंत्र के साथ-साथ जनता के पैसे की बर्बादी जैसे प्रश्नों को ध्यान में रखा जाए, तो अच्छा हो!
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