पुलवामा आतंकी हमले के बाद इस जिले में सुरक्षा बलों और आतंकियों की मुठभेड़ों का अभी भी जारी रहना इस बात का प्रमाण है कि यहां आतंकियों की जड़ें खत्म नहीं हुई हैं और वे पूरी ताकत के साथ सेना से भिड़ रहे हैं। इसी जिले में सोमवार को एक और मुठभेड़ हुई, जिसमें सेना के एक मेजर सहित चार जवान शहीद हो गए। इससे पहले शनिवार को भी बारूदी सुरंग हटाते वक्त एक मेजर की जान चली गई थी। आतंकियों से लोहा लेने में सेना और सुरक्षाबलों के जवानों के हताहत होने की संख्या जिस तेजी से बढ़ रही है, वह चिंताजनक है। ऐसा लग रहा है कि आतंकी ज्यादा ताकतवर होकर सामने आ रहे हैं और सुरक्षा बलों के लिए कड़ी चुनौती बन रहे हैं। जनवरी के आखिरी हफ्ते में खबर आई थी कि हिज्बुल का गढ़ बारामुला अब पूरी तरह आतंकियों से मुक्त हो चुका है। तब उम्मीद जगी थी कि दक्षिण कश्मीर के पुलवामा, शोपियां, कुलगाम और अनंतनाग जैसे जिलों से भी आतंकियों का जल्द सफाया होगा। लेकिन हकीकत कुछ और ही बयां कर रही है।

सरकार दावा करती रही है कि आतंकियों के हौसले पस्त हो चुके हैं और वे हताशा में हमलों को अंजाम दे रहे हैं। लेकिन यह आसानी से गले नहीं उतरता। अगर आतंकियों के हौसले टूट चुके होते तो पुलवामा जैसा हमला नहीं होता। जाहिर है, आतंकियों का नेटवर्क और उनकी ताकत हमारे अनुमान से कहीं ज्यादा है, जिसका खमियाजा हमें जवानों की जान के रूप में चुकाना पड़ रहा है।

जम्मू-कश्मीर में पिछले पांच साल में शहीद होने वाले जवानों की संख्या का ग्राफ जिस तेजी से बढ़ा है, वह कई गंभीर सवाल खड़े करता है। आतंकियों से लोहा लेने में हमारे जवानों को कम से कम नुकसान पहुंचे, इस प्रयास में हमारे रणनीतिकार विफल साबित हो रहे हैं। ऐसे ही सवाल खुफिया तंत्र की नाकामी को लेकर भी उठ रहे हैं। पांच फरवरी को गृह राज्यमंत्री ने लोकसभा में जो आंकड़े पेश किए, वे चौंकाने वाले हैं।

जम्मू-कश्मीर में 2014 से 2018 के बीच शहीद जवानों की संख्या चौरानवे फीसद तक बढ़ गई और आतंकी हमलों में तो एक सौ सतहत्तर फीसद का इजाफा हुआ। 2014 में दो सौ बाईस आतंकी घटनाएं और हमले दर्ज हुए थे और सैंतालीस जवान शहीद हुए थे। 2018 में आतंकी हमलों की संख्या छह सौ चौदह और शहीद जवानों की इक्यानवे तक पहुंच गई। साफ है कि पिछले चार साल में जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद तेजी से बढ़ा है और प्रदेश व केंद्र सरकार की नीतियां समस्या से निपट पाने में बेअसर साबित हुई हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड की एक रिपोर्ट में भी साफ कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर में पिछले पांच साल में देशी बम और अन्य विस्फोटों की घटनाएं बढ़ी हैं। पिछले साल तो इनमें सत्तावन फीसद का इजाफा देखा गया और आतंकवादियों ने देशी बमों का अधिक इस्तेमाल किया। दक्षिण कश्मीर के ग्रामीण इलाकों में आतंकी संगठनों का नेटवर्क अब भी मजबूत लगता है और वहीं देशी बम बनाए जाने और हमलों की साजिश रचे जाने की खबरें आती रही हैं। जवान आतंकियों के सामने तभी मात खाते हैं जब उनके पास पुख्ता सूचनाएं और खुफिया जानकारियां नहीं होती हैं। ऐसे में सुरक्षाबलों को आतंकियों की योजना के बारे में पता नहीं चल पाता और वे हमलों का शिकार हो जाते हैं। जवानों के हताहत होने की घटनाओं से सुरक्षा बलों का मनोबल भी टूटता है और व्यवस्था के प्रति आक्रोश भी बढ़ता है। खुफिया तंत्र अगर मजबूत हो, कारगर रणनीति हो तो जवानों की जान काफी हद तक बचाई जा सकती है।