कम ही राजनेता ऐसे होते हैं जो अपनी पार्टी में रहते हुए भी दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर ईमानदारी से अपना कर्म करते रहते हैं और ऐसी निष्पक्षता, स्पष्टता और खुलापन उनके सामान्य जीवन व व्यवहार में भी स्पष्ट रूप से झलकता है। मनोहर पर्रीकर ऐसे ही राजनेता थे। पर्रीकर अब हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन अपने साढ़े तीन दशक के राजनीतिक जीवन में एक कुशल प्रशासक और राजनेता के रूप में उन्होंने जो छवि बनाई और मानदंड स्थापित किए, वे सभी के लिए अनुकरणीय हो सकते हैं। राजनेताओं के लिए भी और प्रशासकों-अफसरों के लिए भी। भले वे दक्षिणपंथी विचारधारा में पले-बढ़े और अंत तक निष्ठा से उस पर चलते रहे, लेकिन उन्होंने कभी भी उसमें अपने को जकड़ कर नहीं रखा। उनके विचारों और कर्म में एक उदारता हमेशा बनी रही। आज राजनीति में दिखावा, पाखंड, झूठ और छल-कपट जैसे अवगुणों वाले नेताओं की भरमार है, लेकिन पर्रीकर इन सबसे दूर थे। ये सब बातें उनके स्वभाव में मूलत: थीं ही नहीं। इसलिए पर्रीकर हमेशा एक ऐसे नेता के रूप में याद किए जाते रहेंगे जिन्होंने राजनेताओं के व्यवहार और संस्कृति के लिए ऐसे आदर्श स्थापित किए, जिनकी उम्मीद हम अपने जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों से करते हैं।
साल भर पहले जब उन्हें अपनी बीमारी के बारे में पता चला था, तभी से उन्होंने अपने को बदल लिया था। वे जानते थे कि जिस बीमारी ने उन्हें घेर रखा है उसका अंत क्या होता है। इसलिए उन्होंने बाद के दिनों में अपने को भीतर से और ज्यादा मजबूत कर लिया था, हालांकि शारीरिक तौर पर वे लगातार क्षीण होते जा रहे थे। लेकिन ऐसे में भी वे लगातार दफ्तर जाते रहे और पूरी तरह से कामकाज निपटाते थे। अस्पताल में भर्ती हो जाते तो वहां से फाइलें निपटाने का काम चलता। इस साल तीस जनवरी को उन्होंने विधानसभा में जब बजट पेश किया तब उनकी नाक में नली लगी हुई थी। उन्होंने ऐसा एक नहीं कई मौकों पर किया। बीमारी की इसी हालत में जनकल्याण के कई कार्यक्रमों का उद्घाटन तक उन्होंने किया। हालांकि इसके पीछे कोई प्रचार पाने या अपना नाम शिलान्यास के पत्थरों पर खुदवाने की क्षुद्र-इच्छा उनमें कतई नहीं थी, बल्कि इसमें यह एक गहरा संदेश छिपा था कि समस्या या बीमारी चाहे कितनी गंभीर क्यों न हो, काम पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। सार्वजनिक जीवन के प्रति समर्पण की इससे अद्भुत मिसाल और क्या हो सकती है!
पर्रीकर गोवा में चार बार मुख्यमंत्री और एक बार केंद्र में रक्षा मंत्री रहे। लेकिन कभी भी उन पर कोई अंगुली नहीं उठी। वे कभी किसी विवाद में नहीं पड़े, न ही फंसे। पर्रीकर ऐसे पहले मुख्यमंत्री थे जो आइआइटी (मुंबई) से पढ़े थे। इसलिए उन्हें एक नेता और प्रशासक के साथ-साथ टेक्नोक्रेट के रूप में जाना जाता था। वे शुरू से एक सादगी पसंद शख्स थे। पहनावा उनका आधी बाजू की शर्ट, पेंट और चप्पल रहा। वे स्कूटर से भी दफ्तर से चले जाते थे। यह सब बताता है कि शिक्षा और संपन्नता के सारे सोपान हासिल कर लेने के बाद भी वे आमजन के करीब थे। आज हमारे नेता-अफसर ‘वीवीआइपी संस्कृति’ नाम की बीमारी से जिस कदर ग्रस्त हो चुके हैं, उन्हें पर्रीकर की राजनीति और उनका आचरण अलग से दर्ज किए जाने लायक लगता है। ज्यादातर राजनीतिक दलों में वंशवाद बीमारी की तरह फैला हुआ है। लेकिन पर्रीकर ने इससे अपने को और परिवार को बचाया। मारपीट से लेकर बदजुबानी, आपराधिक कृत्य, भ्रष्टाचार, दुराचार जैसे आचरणों में लिप्त राजनेताओं और जनप्रतिनिधियों को पर्रीकर के जीवन से कुछ सीख्र लेनी चाहिए।