राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के ताजा बयान का स्वागत किया जाना चाहिए। बुधवार को राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक समारोह में उन्होंने कहा कि देश में विविधता, बहुलता और भारतीय सभ्यता के मूल्यों को खत्म नहीं होने दिया जाएगा। अलबत्ता उन्होंने सीधे बिसाहड़ा कांड का जिक्र नहीं किया, पर यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि राष्ट्रपति को इस वक्त हमारे संवैधानिक मूल्यों की याद दिलाने की जरूरत क्यों महसूस हुई। राष्ट्रपति ने इन्हें बुनियादी मूल्य भी कहा है, क्योंकि सदियों से ये हमारी सभ्यता का आधार रहे हैं। इनकी याद दिलाना हमारी सभ्यता की बुनियाद का अहसास कराने के साथ ही उस पर हो रहे प्रहार की तरफ भी संकेत करना है।
उत्तर प्रदेश के बिसाहड़ा गांव में कुछ दिन पहले गोमांस खाने की अफवाह पर एक व्यक्ति की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। इस घटना ने स्वाभाविक ही देश के प्रथम नागरिक के साथ-साथ सभी संवेदनशील लोगों को विचलित किया है। सही है कि इस घटना को लेकर राजनीतिक तापमान चढ़ गया है, मगर सियासी खेल से परे जाकर हमें कुछ बुनियादी सवालों से रूबरू होना पड़ेगा। राष्ट्रपति ने जिन मूल्यों का उल्लेख किया है, क्या वे आज के भारत में महफूज हैं, या उन पर आंच आ रही है? हम किस दिशा में जा रहे हैं? हाल में ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं जो बताती हैं कि हमारे बुनियादी मूल्यों के लिए खतरा बढ़ रहा है। राष्ट्रपति ने उचित ही इसके प्रति आगाह किया है। सभाओं के जरिए लोगों को संबोधित करना हो, या आकाशवाणी या सोशल मीडिया के जरिए, प्रधानमंत्री अपने मन की बात कहने का उत्साह दिखाते रहे हैं। पर वे अब तक चुप क्यों थे?
राष्ट्रपति की टिप्पणी के बाद, जब मोदी की चुप्पी पर हर तरफ सवाल उठने लगे, तभी जाकर उन्हें कुछ कहने की जरूरत महसूस हुई। हर घटना पर प्रधानमंत्री के बयान की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन जब कोई घटना राष्ट्रीय चिंता का सबब बन जाए, तो प्रधानमंत्री की खामोशी अखरती है। बहुत देर से मुंह खोलने के पीछे अनेक वजहें हो सकती है, पर नतीजा एक ही हुआ कि भाजपा के कुछ राजनीतिकों को लगता रहा कि वे कुछ भी बोलें-करें, उन्हें कोई रोक नहीं सकता। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज पर कहा कि बिसाहड़ा की घटना दुर्भाग्यपूर्ण है और साथ ही राज्यों को निर्देश दिया कि वे सौहार्द बिगाड़ने वालों से सख्ती से पेश आएं।
इससे पहले, वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा कि दादरी कांड से देश की अंतरराष्ट्रीय छवि प्रभावित हुई है। पर इसके लिए कौन जिम्मेवार है? जब उनकी पार्टी के एक विधायक, एक सांसद, एक केंद्रीय मंत्री तनाव भड़काने वाली बयानबाजी में शामिल दिखें, और प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहें, तो इससे गलत संदेश जाता है। प्रधानमंत्री का पदभार संभालने के बाद स्वाधीनता दिवस के अपने पहले संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि अगर लोग चाहते हैं कि देश तेजी से विकास करे, तो कम से कम दस साल के लिए जाति-धर्म के झगड़े भुला दें। कैसी विडंबना है कि उनकी पार्टी के ही कुछ लोग उनके इस आह्वान को महत्त्व नहीं देते, बल्कि इससे उलट दिशा में चलते दिखते हैं। क्या इन्हें ही यह तय करने दिया जाएगा कि देश का एजेंडा क्या हो?
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