कानून की निगाह में सभी बराबर हैं, यह किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक सामान्य कसौटी है। कानून के समक्ष सबकी समानता हमारे संविधान की भी बुनियादी मान्यता है। लेकिन व्यवहार में अमीर और गरीब, रसूख वालों और साधनहीन लोगों के प्रति हमारी राज्य-व्यवस्था का अलग-अलग व्यवहार अक्सर देखने में आता है। विडंबना यह है कि न्यायिक प्रक्रिया भी इस दोष से अछूती नहीं रही है। आर्थिक रूप से सक्षम आरोपियों को जमानत पर बाहर आने में कोई दिक्कत नहीं होती, क्योंकि जमानत की शर्त पूरी करना उनके लिए आसान होता है। जबकि बहुत-से गरीब लोग जमानत न दे पाने के कारण बाहर नहीं आ पाते, चाहे उन पर लगा अभियोग कितना भी मामूली क्यों न हो। वे विचाराधीन कैदी के तौर पर जेल में सड़ने को अभिशप्त रहते हैं। पर अब सर्वोच्च न्यायालय ने इस विसंगति को दूर करने की पहल की है।
सर्वोच्च अदालत ने पिछले हफ्ते राज्यों के विधि सेवा प्राधिकरण के वकीलों को निर्देश दिया कि वे ऐसे विचारीधान कैदियों को जल्द से जल्द रिहा कराने के लिए आवेदन दें, जो जमानत राशि का प्रबंध न कर पाने के कारण जेल में रहने को विवश हैं। इस आदेश के पीछे अदालत ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक हलफनामे को भी आधार बनाया है। पिछले साल के आखिरी दिन दिए इस हलफनामे में मंत्रालय ने बताया है कि देश भर की जेलों में बंद लोगों में सड़सठ फीसद विचाराधीन कैदी हैं। यह अनुमान से भी समझा जा सकता है कि बहुत-से विचाराधीन कैदी किसी मामूली जुर्म के आरोप में बंद होंगे, और अदालत उनकी जमानत मंजूर कर सकती है। मगर उनकी गरीबी जमानत के आड़े आ जाती है। सर्वोच्च अदालत के ताजा निर्देश से ऐसे लोगों को राहत मिलेगी, साथ ही जेलों का बोझ कम होगा। यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारी जेलों में उनकी क्षमता से बहुत ज्यादा कैदी रहते हैं। गरीबी के कारण जमानत राशि न जमा कर सकने वाले और अपने ऊपर लगे अभियोग की संभावित अधिकतम सजा पूरी कर लेने वाले कैदियों को वहां बंद रखने का औचित्य नहीं है। उनके बाहर आने से जेलों पर अनावश्यक भार नहीं रहेगा, फिर उनकी व्यवस्था बेहतर हो सकेगी।
यह अच्छी बात है कि सर्वोच्च अदालत ने जमानत राशि का प्रबंध न कर सकने वाले गरीब कैदियों के प्रति संवेदनशीलता दिखाई है। पर एक और मसले की तरफ भी ध्यान जाना चाहिए। कई लोगों पर पुलिस संगीन धाराएं थोप देती है, जबकि हकीकत कुछ और होती है। विपक्षी दलों और सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ताओं के विरुद्ध जान-बूझ कर ऐसी धाराएं लगा दी जाती हैं कि वे जेल में सड़ते रहें। मसलन, कुडानकुलम परियोजना का विरोध करने वाले लोगों के खिलाफ राष्ट्र-द्रोह के मुकदमे थोप दिए गए, जिनमें स्त्रियां और बच्चे भी थे। ऐसे और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं। आंदोलन के दौरान निषेधाज्ञा का उल्लंघन करने या सरकारी कामकाज बाधित करने को क्या राष्ट्र-द्रोह का मामला माना जा सकता है? इसके अलावा, पुलिस कई बार ताकतवर लोगों का साथ देने के लिए कमजोर पक्ष के खिलाफ संगीन धाराएं लगा देती है। इस तरह की नाइंसाफियों को कैसे रोका जाए, इस बारे में भी कोई ठोस पहल होनी चाहिए।
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