गुजरात में आरक्षण की खातिर पटेल समुदाय के आंदोलन के बाद हुई हिंसा के लिए भीड़ के व्यवहार के साथ-साथ सरकार का अगंभीर रवैया भी जिम्मेवार है। रैली में भारी भीड़ जुटने का अनुमान था। कई लाख की भीड़ जुटी भी। ऐसे मौकों पर प्रशासन पल-पल नजर रखता है। कोई भी कार्रवाई करने से पहले ऊपर से निर्देश लिए या दिए जाते हैं। मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने रैली स्थल पर पुलिस के लाठीचार्ज की वजहें जानने के लिए जांच का आदेश दिया है। तो क्या पुलिस के आला अफसरों के आदेश के बगैर वह कार्रवाई की गई थी, या जांच की घोषणा का मकसद लाठीचार्ज के औचित्य पर उठे सवालों को किनारे करना है?

आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल को सरकार ने अचानक गिरफ्तार करने की जरूरत महसूस की, पर आधे घंटे बाद ही उन्हें छोड़ दिया गया। शायद इसलिए कि गिरफ्तारी की उग्र प्रतिक्रिया हुई। विरोध में गुजरात बंद का आह्वान किया गया। कई जगह बसें जलाई गर्इं और तोड़-फोड़ हुई। पर सरकार को ऐसी प्रतिक्रिया का कुछ अंदाजा तो रहा ही होगा या होना चाहिए। उससे निपटने के लिए क्या एहतियाती कदम उठाए गए? केंद्र में बैठे नेताओं की ज्यादा दिलचस्पी बिहार की चुनावी रणनीति बनाने में थी। जब हालात नियंत्रण से बाहर जाते मालूम हुए, तो सेना बुलानी पड़ी। सीआरपीएफ की भी कई टुकड़ियां राज्य में तैनात हैं। पुलिस फायरिंग और भीड़ की हिंसा में कुल मिला कर नौ लोगों के मारे जाने की खबर है।

एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए गुजरात हाइकोर्ट ने अमदाबाद के पुलिस आयुक्त को शुक्रवार तक हिंसा की बाबत रिपोर्ट पेश करने को कहा है। क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि इस रिपोर्ट में यह बात भी आएगी कि हालात का अंदाजा लगाने और उनसे निपटने में पुलिस से गलतियां हुर्इं? बहरहाल, इस आंदोलन के संदर्भ में और भी कई सवाल उठे हैं। आखिर क्यों गुजरात का पाटीदार समुदाय ओबीसी के दायरे में आना चाहता है, जिसका राज्य की राजनीति और प्रशासन से लेकर जमीन और व्यापार तक दबदबा है। 1981 और फिर 1985 में पटेलों ने ही गुजरात में आरक्षण-विरोधी आंदोलन की अगुआई की थी। अब वे खुद अपने लिए आरक्षण मांग रहे हैं।

इस आंदोलन का चेहरा हैं हार्दिक पटेल, जो महज बाईस साल के हैं और चंद दिन पहले तक जिन्हें कोई नहीं जानता था। दूसरा खास विरोधाभास यह है कि पाटीदार लोग पिछले कई चुनावों से भाजपा के समर्थक रहे हैं। राज्य की मुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष समेत कई मंत्री और चौवालीस विधायक इसी समुदाय से हैं। लिहाजा, प्रधानमंत्री के गृहराज्य में इस समुदाय की नाराजगी जिस पैमाने पर फूटी है उसने बहुत-से लोगों को हैरान किया है। खुद भारतीय जनता पार्टी सकते में है। गुजरात मॉडल पर भी सवाल उठ रहे हैं, कि क्या इसका लाभ ऊपरी तबके तक ही सिमट कर रह गया है, और आम लोगों की हालत गुजरात में भी वैसी ही है जैसी दूसरे राज्यों में? इन सवालों का हल आरक्षण के दायरे में नहीं तलाशा जा सकता। इसके लिए आरक्षण से आगे जाकर सोचना होगा।

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