उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर में दो बच्चों पर जिस तरह के अत्याचार की घटना सामने आई है, वह किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को दहलाने वाली है। इससे यही साबित हुआ है कि एक ओर कानून और पुलिस का खौफ लोगों में नहीं रह गया है, वहीं समाज में ऐसी प्रवृत्तियां मजबूत हो रही हैं, जिसमें इंसान अपना विवेक गंवा रहा है और किसी मामूली बात पर भी प्रतिक्रिया करते हुए बेरहमी की सारी हदें पार कर रहा है।

सिद्धार्थनगर में डुमरियागंज तहसील क्षेत्र के कनकटी चौराहे के पास कुछ लोगों ने दो बच्चों को चोरी के आरोप में पकड़ा और उन्हें मारना-पीटना शुरू कर दिया। लोगों की क्रूरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उन्होंने दोनों बच्चों के निजी अंगों में मिर्च डाल दी, पेट्रोल का इंजेक्शन लगा दिया और जबरन पेशाब पिलाया। सिर्फ इतने से इस घटना के दौरान बच्चों की दशा के बारे में समझा जा सकता है। दोनों बच्चे गिड़गिड़ाते, पीड़ा से चीखते और बचाने की गुहार लगाते रहे, लेकिन लोगों ने उन्हें बर्बरता से पीटना जारी रखा।

विडंबना है कि पिछले हफ्ते हुई इस बर्बरता के बारे में खुद पीड़ित बच्चों के परिजनों को भी तब पता चला, जब इस घटना का वीडियो बहुत सारे लोगों तक पहुंच गया। उसके बाद पुलिस ने आरोपियों को गिरफ्तार किया। दरअसल, पीड़ित बच्चे इतने डर और सदमे में चले गए थे कि उन्होंने अपने घर में भी नहीं बताया था। ऐसा लगता है, मानो यह किसी मध्ययुगीन समाज की घटना है, जहां न किसी को कानून की फिक्र है, न यह याद रखना कि आखिर वे इंसान हैं और किसी सभ्य समाज में ऐसे अराजक और बर्बर बर्ताव की जगह नहीं हो सकती।

भीड़ की शक्ल में मौजूद जो लोग उन दोनों बच्चों के खिलाफ ऐसा कर रहे थे, आखिर किन वजहों से उन्हें एक बार भी यह सोचना जरूरी नहीं लगा कि अगर उन बच्चों पर चोरी का आरोप है तो इसकी जांच करना पुलिस का काम है। अगर बच्चों ने ऐसा किया भी था तो उनके खिलाफ की गई ऐसी बर्बरता क्या सीधे-सीधे लोगों की विवेकहीनता, कुंठा और अराजकता का सबूत नहीं है।

दरअसल, आम लोगों में कई स्तरों पर जागरूकता और संवेदनशीलता का पर्याप्त विकास नहीं हो पाया है। किसी मामले में अपराधी अगर ताकतवर और रसूख वाले होते हैं, तब ज्यादातर लोग डर की वजह से और इस तर्क पर चुप्पी साध लेते हैं कि उनके खिलाफ कानून अपना काम करेगा। लेकिन अगर किसी आपराधिक घटना के महज आरोप में कोई कमजोर व्यक्ति पकड़ में आ जाता है तो उसे खुद सजा दे डालने पर उतारू हो जाते हैं। यह कानून के शासन के साथ-साथ अपने विवेक को भी ताक पर रखना है।

हिंसक और अराजक भीड़ के साथ शामिल होकर किसी को सजा देने का खयाल पालने वाला व्यक्ति अपना विवेक खोकर अराजक तो हो जाता है, लेकिन उसके अंजाम के बारे में नहीं सोच पाता कि एक ओर वह अपनी इंसानियत खो रहा है, तो दूसरी ओर वह खुद कानून के कठघरे में खड़ा होगा। इसके अलावा, सरकार के कानून के राज का दावा करने और जमीनी हकीकत में फर्क है। सिद्धार्थनगर में दोनों बच्चों के साथ हुई बर्बरता ने सरकार, शासन, समाज के रवैये और लोगों के बीच तेजी से बढ़ती विवेकहीनता और संवेदनहीनता से जुड़े कई गहरे सवाल उठाए हैं।