ईरान का परमाणु कार्यक्रम लंबे समय से विवाद का विषय रहा है। ईरान जहां इसे शांतिपूर्ण उद्देश्यों से प्रेरित बताता रहा, वहीं अमेरिका समेत पश्चिमी देशों का आरोप था कि इसका मकसद परमाणु हथियार विकसित करना है। तेरह साल पहले जब ईरान के एक परमाणु संयंत्र में यूरेनियम संवर्धित किए जाने की सूचना लीक हुई, तो पश्चिमी देशों का शक और बढ़ गया। फिर, ईरान अपने एटमी संयंत्रों की अंतरराष्ट्रीय निगरानी की इजाजत देने के लिए भी तैयार नहीं था।
तब के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने इस मामले को ईरानी संप्रभुता से जोड़ कर उग्र राष्ट्रवादी रंग देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। पर ईरान को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। वह कूटनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ता गया। उसे अमेरिका, यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र की तरफ से लगाए गए व्यापारिक प्रतिबंध झेलने पड़े। इसका उसकी अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा और ईरानियों को तकलीफें उठानी पड़ीं। इसलिए परमाणु कार्यक्रम समझौते को लेकर ईरानियों ने खुशी का इजहार किया है। पर यह ईरान के लिए ही नहीं, सारी दुनिया के लिए राहत की बात है।
ईरान में सत्ता परिवर्तन के साथ ही यह उम्मीद दिखने लगी थी कि एटमी विवाद का हल अब निकल आएगा। 2013 में राष्ट्रपति चुने गए हसन रूहानी ने अपने लोगों से वादा किया था कि वे पश्चिम से संबंध सुधारेंगे। दूसरी ओर, अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भी इस विवाद का समाधान निकालने के इच्छुक थे और डेढ़ साल से इसके लिए पुरजोर प्रयास कर रहे थे।
ये कोशिशें रंग लार्इं। नतीजतन, ईरान और अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी फ्रांस, रूस, चीन के बीच एक सहमति की घोषणा हुई है। इसके मुताबिक ईरान यूरेनियम संवर्धित करने की अपनी क्षमता में दो तिहाई कटौती करेगा। साथ ही वह अपने परमाणु कार्यक्रम को अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की निगरानी के दायरे में लाने के लिए भी तैयार हो गया है। बदले में ईरान पर लगे अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक प्रतिबंध चरणबद्ध ढंग से हटा लिए जाएंगे। अलबत्ता यह अंतरिम समझौता है; अंतिम समझौता जून तक आकार ले पाएगा। इस सहमति की अहमियत केवल एक अंतरराष्ट्रीय विवाद की विदाई तक सीमित नहीं है।
इसके फलस्वरूप अमेरिका और ईरान के संबंध सुधरेंगे और यह भी हो सकता है कि अरब दुनिया में शिया-सुन्नी तनाव खत्म या कम करने में भी इससे मदद मिले। एक संभावना यह भी जताई गई है कि ईरान आइएस से निपटने की कोशिशों में मददगार साबित हो सकता है। ईरान के परमाणु कार्यक्रम को इजराइल अपने वजूद के लिए खतरा बताते नहीं थकता था, वहीं शिया ईरान को सुन्नी सऊदी अरब भी इसी नजरिए से देखता रहा है।
यह विडंबना ही है कि जब ईरान ने पश्चिम एशिया में शांति और स्थायित्व के पक्ष में एक ऐतिहासिक कदम उठाया है, तो इजराइल और सऊदी अरब को वह नागवार गुजरा है। क्या वे इसलिए नाखुश हैं कि कहीं उनकी भी एटमी महत्त्वाकांक्षा पर सवाल न उठने लगें? इनकी तरफ से समझौैते को पटरी से उतारने की कोशिश हो, तो वह आश्चर्य की बात नहीं होगी। ओबामा को इस बारे में सजग रहना होगा। उनके सामने विपक्ष यानी रिपब्लिकन पार्टी के रवैए से भी निपटने की चुनौती होगी, जिसने समझौते की आलोचना की है।
भारत हमेशा इस बात की वकालत करता रहा है कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम संबंधी विवाद को बातचीत से सुलझाया जाए। समझौते से उसके रुख पर मुहर लगी है। ईरान का अंतरराष्ट्रीय बंदिशों से बाहर आना भारत के लिए व्यापारिक नजरिए से भी सकारात्मक घटना है। अब उसके लिए तेल के आयात का एक बड़ा दरवाजा फिर से खुल जाएगा, ईरान से दूसरे व्यापारिक लेन-देन भी बढ़ेंगे। इसलिए भारत की भी कोशिश यही होगी कि यह अंतरिम समझौता अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचे।
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